Wednesday, March 24, 2010

इसी दम पर आगे बढ़ेगा उत्तर प्रदेश



उमेश चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर बोर्ड परीक्षाओं का पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है। राज्य के खासकर पूर्वी जिलों में प्रशासन के तमाम दावों के बावजूद नकलची छात्रों पर पूरी तरह नकेल नहीं लगाई जा सकी है। नकल माफिया के लिए मशहूर रहे बलिया, गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों के अधिकारियों ने नकल रोकने के लिए कोर-कसर नहीं रखी है। इसके बावजूद नकल माफिया की पौ बारह है। राज्य के पश्चिमी जिलों के विद्यार्थियों का इस बार भी बड़ा रेला इन जिलों में महज एक अदद सर्टिफिकेट के लिए इम्तहान की औपचारिकताओं में जुट गया है। जाहिर है इससे नकल माफियाओं के चेहरी मुस्कान चौड़ी हुई है तो वहीं अपने सुनहरे भविष्य का ख्वाब बुनने में जुटे छात्रों की आंखों में सपने पूरी शिद्दत से तैर रहे हैं। ये दोहराना ना होगा कि इसकी वजह नकल ही बना है। सपनों और मुस्कान के कोलायडीस्कोप में स्थानीय लोगों की भी खुशियां शामिल हैं। लेकिन जो शिक्षा की अहमियत जानते हैं, उनके लिए शिक्षा का ये नाटक दर्द का सबब बन गया है।

चाहे लाख दावे किए जाएं, लेकिन ये सच है कि जब से परीक्षाओं की शुरूआत हुई है, कमोबेश नकल का चलन तब से ही है। लेकिन उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षाओं में नकल का जोर सत्तर के दशक बढ़ा और देखते ही देखते पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक रसूख की वजह तक बन गया। जो जितने लोगों को नकल करा सके या कमजोर छात्रों की कापियां अपने दम पर नकल के सहारे लिखवा सके, उसका सामाजिक रूतबा उतना ही बढ़ने लगा। देखते ही देखते ये रोग राज्य के विश्वविद्यालयों तक में फैल गया। कभी पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी इस रोग की गिरफ्त में आ गया। हालात इतने बिगड़े कि यहां पीएसी के संगीनों के साये के बीच परीक्षाएं होने लगीं। राज्य में कभी पॉलिटेक्निक शिक्षा के लिए मशहूर रहे इलाहाबाद के ही हंडिया पॉलिटेक्निक और चंदौली पॉलिटेक्निक में संगीनों के साये के बिना परीक्षाएं कराने का साहस प्रिंसिपल नहीं कर पाते थे। राज्यों के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रसंघों में वही छात्रनेता जीत हासिल करने के काबिल माने जाने लगे। किसी – किसी साल तो नकल के लिए पूर्वी जिलों में अराजकता का माहौल तक बन जाता था। और फिर तो यह परंपरा ही बन गई। इस परंपरा पर ब्रेक पहली बार 1991 में तब लगा, जब कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब राजनाथ सिंह जब भी किसी कार्यक्रम में जाते और वहां अपने स्वागत में जुटे छात्रों को हिदायत देने से नहीं चूकते थे कि पढ़ाई करो, हम लोग नकल नहीं करने देंगे। पहली बार कायदे से राज्य की सत्ता में आई बीजेपी के सामने शायद तब आदर्श स्थिति लागू करने का मिशन था, लिहाजा उत्तर प्रदेश में बरसों बाद नकल विहीन परीक्षा हुई। इस दौरान पुलिस को भी परीक्षार्थियों पर कार्रवाई करने के अधिकार दे दिए गए थे। नकलची छात्रों को जेल भेजा गया। यहीं सरकार से चूक हो गई। और एक अच्छा प्रयास प्रशासनिक चूकों की बलि चढ़ गया। बाद में 1993 के विधानसभा चुनावों में मुलायम सिंह ने अपने घोषणा पत्र में ही छात्रों को परीक्षाओं के दौरान छूट देने का ऐलान किया। जिसका फायदा उन्हें मिला और सत्ता में आते ही उन्होंने राज्य बोर्ड की परीक्षाओं में खुली छूट दे दी। इससे युवा वर्ग खुश तो हुआ, नकल के आधार पर परीक्षाएं कराने को एक तरह से सामाजिक वैधानिकता भी मिली। इससे एक बार फिर अभिभावकों और छात्रों के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। लेकिन इस मुस्कान के साथ ही उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ज्ञान आधारित सामाजिक ढांचा बनाने के विचार को तिलांजलि दे दी गई। उसी का असर है कि अब नकल विहीन परीक्षाएं आयोजित कराने के लिए हर साल दावे तो किए जाते हैं, लेकिन वे महज कागजी बन कर रह जाते हैं। इसी का असर हुआ है कि पूर्वी जिलों में नकल माफिया ने पैर फैला लिए हैं। इसके चलते नकल माफियाओं की बन आयी है। ये माफिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य उत्तर प्रदेश के छात्रों को सर्टिफिकेट दिलाने का सौदा करते हैं। उनके गलत पतों के आधार पर फॉर्म भरे जाते हैं। इसके सहारे पूर्वी जिलों में परीक्षाओं के दिनों में बाकायदा अर्थव्यवस्था तक चलने लगती है। इसी बार इन पंक्तियों के लेखक को सीतापुर के ऐसे छात्र मिले, जिन्होंने बलिया से फॉर्म भरा था। उन्हें प्रवेश पत्र हासिल करने के एवज में नकल माफियाओं को पचास हजार रूपए तक देने पड़े हैं।

कहा जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी ज्ञान और सूचना की सदी है। यानी आज के दौर में जिसके पास ज्ञान और सूचनाएं हैं, वही ताकतवर है। मानव विकास सूचकांक में उत्तर प्रदेश से उड़ीसा नीचे है। सूचना के दम पर वहां के युवाओं ने सिलिकॉन वैली से लेकर साइबराबाद और बेंगलुरू में परचम फहरा रखा है। लेकिन उत्तर प्रदेश ऐसी उपस्थिति दर्ज कराने में अब तक नाकाम रहा है। इसके अहम कारणों में एक वजह राज्य में नकल का संस्थागत होना भी है। दरअसल इन इलाकों में नकल सिर्फ प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक समस्या भी है। यहां के समाज में नकल करना और कराना नाक नीची होने की वजह नहीं है। अब तक नकल रोकने के जितनी भी कोशिशें हुईं हैं, वह सिर्फ प्रशासनिक ही रही हैं। सामाजिक स्तर पर इस बुराई को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की गई। यही वजह है कि प्रशासनिक धमकी और डर के आगे कुछ वक्त तक नकल भले ही रूक जाती है, लेकिन यह चलन नहीं बन पाती। इसके ही चलते नकल माफियाओं की भी बन आती है।

एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदी भाषी समाज पर व्यंग्य करते हुए लिखा था कि इन इलाकों से सबसे ज्यादा लोगों को कोलकाता, मुंबई और दिल्ली में चौकीदार, चपरासी और रसोइए का ही काम मिल पाता है, क्योंकि शिक्षा से उनका कोई गहरा रिश्ता नहीं होता। दरअसल खुशवंत सिंह इस लेख के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज में शिक्षा को लेकर जो दृष्टि है, उस पर व्यंग्य कर रहे थे। कमोबेश यही स्थिति इन इलाकों से पढ़कर निकले ज्यादातर छात्रों की आज भी है। नकल के सहारे परीक्षाएं पास करके जब वे नौकरियों के बाजार में दूसरे इलाकों के छात्रों से प्रतियोगिता करने निकलते हैं तो पिछड़ना उनकी मजबूरी होती है। ऐसा नहीं कि उनमें प्रतिभाएं नहीं हैं। जब भी मौका मिलता है, वे अपनी प्रतिभा को साबित भी कर देते हैं। लेकिन शिक्षा का कमजोर आधार उन्हें पीछे कर देता है।

ऐसे में जरूरी ये है कि इन इलाकों में नकल का निदान सामाजिक बुराई के तौर पर किया जाय। नकल के खिलाफ इस इलाके के समाज को ही जगाना होगा। इसके जरिए सामाजिक नजरिए को भी बदला जाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश के छात्र और नौजवान भी अपनी प्रतिभा के दम पर जिंदगी के तमाम क्षेत्रों में अपना परचम लहरा सकेंगे। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि सामाजिक बुराई के खिलाफ खड़ा होने की शुरूआत करने के लिए कोई तैयार है भी या नहीं.....।

2 comments:

  1. इस सामाजिक बुराई को जड़ से अलग करना होगा. विचारणीय आलेख.

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  2. exam ke vartman pattern me badtav ke saath rojgarparak education se kuch had tak e maansikta par rok lag sakta hai....

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