Saturday, July 23, 2011

विरोध के सुरों के बीच दार्जिलिंग क्षेत्रीय प्रशासन

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की अजीब-सी फितरत है। पहले वे समस्याएं पैदा करते हैं, फिर उसे अपने राजनीतिक हितों के लिए बढ़ावा देते हैं, समाधान भी वही करते हैं और चलते-चलते ऐसा समाधान करते हैं कि उस समाधान में भी भविष्य के लिए कुछ नई समस्याएं रह जाती हैं। दार्जिलिंग टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी दार्जिलिंग क्षेत्रीय प्रशासन बनाने को लेकर हुआ त्रिपक्षीय समझौता भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की इसी खासियत का ताजा उदाहरण है। समझौता हुआ नहीं कि इसके विरोध की लहरें तेजी से उठने लगीं हैं। दार्जिलिंग से सटे जलपाईगुड़ी जिले के जिन तराई और दोआर्स वाले इलाकों को इस प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन लाया गया है, वहां इसका विरोध शुरू हो गया है। यहां सक्रिय संस्थाएं आमरा बंगाली, जन जागरण, जन चेतना के साथ ही स्थानीय अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद भी विरोध के इस सुर में अपना सुर मिलाने लगी है। समझौते के ठीक अगले दिन यानी 19 जुलाई से 48 घंटे के व्यापक बंद का जिस तेजी से इन संस्थाओं ने ऐलान किया और लोगों का उसे जितना समर्थन मिला है, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में दार्जिलिंग टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन यानी डीटीए की राह आसान नहीं होगी। दरअसल जिस डीटीए के गठन को लेकर पश्चिम बंगाल की ममता सरकार और पी चिदंबरम का गृहमंत्रालय अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहा है, उसके गठन की सबसे बड़ी वजह पिछली सदी के अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में अलग गोरखालैंड राज्य के गठन का हिंसक आंदोलन रहा है। इस हिंसक आंदोलन की कीमत इन इलाकों में रह रहे गैर नेपाली मूल के लोगों ने चुकाई है। दरअसल तराई और दोआर्स के इलाकों में नेपाली मूल से कहीं ज्यादा बांग्ला और हिंदी भाषी लोग हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान से गए लोगों का यहां के मोहल्ला व्यापार पर तो कब्जा है ही, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अपनी आर्थिक समृद्धि के जरिए उनका हस्तक्षेप बना हुआ है। स्थानीय बांग्लाभाषियों का तो खैर यह इलाका है ही। फिर आदिवासी, बोडो और राजवंशी समुदाय भी अच्छी खासी संख्या में है। इनकी भी अलग गोरखालैंड राज्य के प्रति सहानुभूति नहीं रही है। नेपाली मूल के अलग गोरखालैंड राज्य के गठन के हिंसक आंदोलन के शिकार यही लोग हुए थे। हालांकि स्थानीय नेपाली समुदाय के साथ उनके रिश्तों में उस दौर की तल्खी नहीं है। लेकिन इतिहास तो इतिहास होता है और उसे झुठलाया जाना आसान नहीं होता। इतिहास में मिली टीस भविष्य को आशंकित करने के लिए काफी होती है। पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इतिहास की इस टीस को ठीक से नहीं समझा। दिलचस्प बात यह है कि इस समझौते की इस कमी को पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के एक स्तंभ रहे अशोक भट्टाचार्य ने खुलकर इस समझौते का विरोध किया है। अखबारों में उनके बयान भी आए हैं। इन बयानों के मुताबिक तराई और दोआर्स के इलाक़ो को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में लाए जाने से इन इलाक़ो में मौजूद आदिवासियों, बंगालियों, बोडो और राजवंशी समाज के लोगों के मन में निराशा पैदा होगी, जिससे समस्या के समाधान की बजाए नई दिक़्कते ही बढ़ेंगीं। हालांकि ममता सरकार ने एक समिति के गठन का भी ऐलान किया है, जो तराई और दोआर्स के इलाकों को इस नए प्रशासन में शामिल करने के लिए सुझाव देगी। लेकिन तराई और दोआर्स में रह रहे गैर नेपाली समुदाय के लोगों को आशंका है कि समिति की रिपोर्ट डीटीए और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के ही पक्ष में रिपोर्ट देगी।
नाराज तो अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर लंबे समय तक संघर्षरत रहे गोरखा लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घीसिंग भी हैं। इसके साथ ही अखिल भारतीय गोरखा लीग भी इसके विरोध में है। यह सच है कि इस समय गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का दार्जिलिंग के इलाकों में बोलबाला है। हालांकि इसका गठन सिर्फ तीन साल पहले यानी 2008 में हुआ था। इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि अलग गोरखालैंड की अपनी पैरवी के दम पर पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाले सुभाष घीसिंग और उनका संगठन हाशिए पर पड़ा है। उन्हें डीटीए के गठन के विमर्श में भी शामिल नहीं किया गया। समझौता तो खैर गृहमंत्रालय, पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के रोशन गिरी के ही बीच हुआ है। यह ठीक है कि गोरखा लीग और सुभाष घीसिंग को इस समझौते में शामिल नहीं किया जा सकता था। लेकिन विचार-विमर्श की प्रक्रिया में उन्हें शामिल किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे घीसिंग और गोरखा लीग का नाराज होना अस्वाभाविक नहीं है। जिस तरह से इसके गठन के बाद ही विरोध शुरू हो गया है, उसमें राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में घीसिंग और अखिल गोरखा लीग भी जुट सकता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पश्चिम बंगाल और देश की सरकार और उसके अधिकारी इस आशंका को क्यों नहीं समझ पाए। अब दार्जिलिंग इलाके में यह सवाल भी पूछा जाना शुरू हो गया है कि 2008 में नेपाली भाषियों के अलग राज्य के मुद्दे पर गठित गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सामने आखिर क्या मजबूरी रही कि उसने इस नए प्रशासन के मसविदे को मंजूरी दे दी। अगर इस मांग ने जोर पकड़ा तो गोरखा जनमु्क्ति मोर्चा के भी पाला बदलते देर नहीं लगेगी।
डीटीए 1988 में बनी गोरखालैंड हिल काउंसिल की जगह लेने जा रही है। जिसे हिल काउंसिल से कहीं ज्यादा अधिकार हासिल हैं। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने खुद इसका ऐलान करते हुए कहा कि क्षेत्रीय प्रशासन को व्यापक अधिकार दिए गए हैं और उनके पास रोज़मर्रा के काम काज से संबंधित लगभग सभी विभाग मौजूद हैं। हालांकि उसे कानून बनाने के अधिकार हासिल नहीं है। समझौते के मुताबिक इस प्रशासन के लिए 45 सदस्य चुने जाएंगे, जबकि पांच को राज्य सरकार मनोनीत करेगी। उपर से देखने में यह व्यवस्था बेहद साफ-सुथरी नजर आ रही है। लेकिन हकीकत तो यह है कि इसका राजनीतिक विरोध शुरू हो गया है। राज्य की विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि इस प्रशासन के गठन में उनसे सलाह-मशविरा भी नहीं किया गया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तो यहां तक कह रही है कि ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए यह नया प्रशासन बनवाया है। विपक्षी दलों के इस आरोप में दम इसलिए नजर आता है, क्योंकि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी ने इस इलाके में और अधिकार प्राप्त नई व्यवस्था बनाने का वादा किया था। ममता बनर्जी को अभी विधानसभा से इस प्रशासन को कानूनी जामा पहनाने के लिए विधेयक पारित कराना होगा। चूंकि नए समझौते के तहत गोरखालैंड प्रशासन के पास 54 विभाग होंगे जिसके तहत भूमि के मामले की देख-रेख का अधिकार भी शामिल है। इसलिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध उसे विधानसभा में झेलना होगा। क्योंकि भूमि सुधार कम्युनिस्ट पार्टियों की जान रहे हैं और राज्य में उनके 34 साल के शासन की प्रमुख वजह भी रहे हैं। जाहिर है कि नए समझौते के तहत बन रहे इस प्रशासन को चौतरफा विरोध शुरू हो गया है और गोरखालैंड में आंदोलनों का जो इतिहास रहा है, उससे आशंकाएं ही बढ़ती हैं। क्योंकि विरोध के इन सुरों के बीच फिर किसी गोरखा या राजनीतिक समूह ने अलग राज्य की वीणा बजानी शुरू की तो गोरखालैंड में शांति बनाए रखना आसान नहीं होगा। व्यापक राजनीतिक विमर्श की कमी लोकतांत्रिक समाज में अविश्वसनीयता को ही बढ़ाती है और यह अविश्वसनीयता कई बार महत्वाकांक्षी राजनीतिक दलों को अपनी ताकत बढ़ाने का माहौल मुहैया कराती हैं।

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