Saturday, August 6, 2011

बदलते दौर में बेहद याद आएंगे जनेश्वर मिश्र


उमेश चतुर्वेदी
1989 के आम चुनावों के नतीजे आने शुरू हो गए थे। कांग्रेस विरोधी लहर की अगुआई कर रहे वीपी सिंह के अपने गृह इलाके इलाहाबाद से जिस सज्जन को जनता दल ने मैदान में उतारा था, शुरूआती दौर में तब की कांग्रेसी उम्मीदवार से वह पिछड़ रहा था। इलाहाबाद संसदीय सीट के विपक्षी जनता दल का उम्मीदवार न जीत पाए, यह जितनी हैरत की बात जनता दल के लिए थी, उतना ही आश्चर्य मीडिया को भी था। तब बीबीसी के विजय राणा ने लंदन से फोन करके उस विपक्षी दल के नेता से पिछड़ने को लेकर प्रतिक्रिया मांगी, जिसको उत्तर भारत में जीत की पूरी उम्मीद थी।
शुरूआती मतगणना में पिछड़ता नजर आ रहे उस दौर की विपक्षी राजनीति के अगुआ के गृह क्षेत्र इलाहाबाद से कांग्रेस विरोधी अभियान का जिम्मा संभाल रहे उस नेता ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया था – कांग्रेस की उम्मीदवार हमारी भाभी हैं...आप इलाहाबाद शहर की मतपेटियों को खुलने दीजिए। तब मुझे अफसोस होगा, क्योंकि हमारी भाभी चुनाव हार जाएंगी। और ऐसा ही हुआ। जनेश्वर मिश्र भारी मतों से विजयी हुए। यहां यह बता देना जरूरी है कि इलाहाबाद से जनेश्वर मिश्र के खिलाफ तब कांग्रेस ने आज की उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी की मां और हेमवंतीनंदन बहुगुणा की पत्नी कमला बहुगुणा को अपना उम्मीदवार बनाया था।
जनेश्वर मिश्र के व्यक्तित्व को समझने के लिए यही एक उदाहरण काफी है। उनमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा था। यही वजह है कि छात्र जीवन में एक बार समाजवाद में उनका भरोसा क्या जमा, ता जिंदगी उस भरोसे को बरकरार रखा। समाजवाद में बढ़ते सिनेमाई तड़क-भड़क के दौर में भी उनका असल समाजवादी मन नहीं बदल पाया। बाद में जब यह लगा कि आंदोलन के बिना काम नहीं चलेगा तो खराब स्वास्थ्य के बावजूद 21 जनवरी 2010 को इलाहाबाद की सड़कों पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की अगुआई करने उतर पड़े। 76 साल की उम्र में उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था। चलने-फिरने में भी उन्हें तकलीफ होती थी, तब भी उन्हें लगा कि अब ठहरने और रूकने का वक्त नहीं रहा। आखिरी वक्त तक उनके सहयोगी की भूमिका में रहे शिव शरण तिवारी को याद है कि शारीरिक कष्टों के बावजूद उस दिन वे पूरे उत्साह में थे। उन्हें लगता था कि अब मैदान में नहीं उतरे तो लोहिया के आम आदमी की तकलीफों पर कोई ध्यान नहीं देगा। लेकिन अफसोस अपने इस आंदोलन को वे आगे बढ़ा पाते, मौत महबूबा अगले ही दिन हमेशा के लिए उन्हें अपने साथ लेकर चली गई। छोटे लोहिया का जन्म भले ही पांच अगस्त 1933 को बलिया के शुभनथहीं के गांव में हुआ था। लेकिन उनका कार्यक्षेत्र इलाहाबाद रहा। बलिया में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद इलाहाबाद पहुंचे जनेश्वर को आजाद भारत के विकास की राह समाजवादी सपनों के साथ आगे बढ़ने में दिखी और समाजवादी आंदोलन में इतना पगे कि उन्हें लोग छोटे लोहिया के तौर पर ही जानने लगे। समाजवादी आंदोलन में उनके योगदान और इलाहाबाद के साथ उनके रिश्ते को यूं समझा जा सकता है कि वे पहली बार 1969 में इलाहाबाद की ही उस सीट फूलपुर से लोकसभा पहुंचे, जहां की नुमांइदगी पंडित जवाहर लाल नेहरू करते थे। हराया भी उन्होंने खुद पंडित नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को। तब 36 साल का यह नौजवान इलाहाबाद में बदलाव का प्रतीक बन गया था। 1980 के चुनाव में लोकदल के टिकट पर वे बलिया से मैदान में थे। तब उनका प्रचार करने पहुंचे वयोवृद्ध समाजवादी नेता और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन वित्तमंत्री मधुकर दिघे ने कहा था – ‘जनेश्वर मुझसे उम्र में मुझसे छोटा है, लेकिन समझ और राजनीतिक कद में वह मुझसे बड़ा है।’ लेकिन दिघे की यह अपील भी बलिया के लोगों पर असर नहीं डाल पाई। चंद्रशेखर के सामने जनेश्वर मिश्र की हार हुई। इस चुनाव के बाद बलिया के सहतवार में हुई एक सभा में उन्होंने जो भाषण दिया, उसकी एक लाइन आज भी इन पंक्तियों के लेखक को समाजवादी आंदोलन को समझने के सूत्र की तरह याद है। छोटे लोहिया ने तब कहा था- ‘हमारी कुर्सी कभी संसद में होती है तो कभी सड़क पर, लेकिन जनता की आवाज के साथ हम कभी समझौता नहीं करते। ’ लेकिन जब सड़क से उठे मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी में समाजवाद से विचलन साफ नजर आने लगा और उस दौरान यह सूत्र वाक्य बोलने वाले की चुप्पी खलती रही। इस चुप्पी के निहितार्थों को वे भी शायद समझते थे, तभी उन्होंने शायद आखिर में एक बार फिर समाजवादी आंदोलन की मूल राह पर वापस लौटने की कोशिश की थी। मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की मशहूर कविता – लोहिया के न रहने पर – कविता बेहद उद्वेलित करती थी। साहित्य की चर्चा हो तो वे इस कविता का उल्लेख जरू करते थे। शायद यही वजह है कि आपसी बातचीत में समाजवादी विचलन से परेशान रहा करते थे।
कभी समाजवादी राजनीति में अपने इलाके का काम न करना अच्छाई की बात मानी जाती थी। लेकिन उनके अपने इलाके के लोग इसे अच्छाई मानने से इनकार करते रहे हैं। समाजवादी राजनीति से एक शिकायत कमसे कम उनके अपने इलाके के लोगों को रही है, उन्होंने दूसरे इलाकों को तरजीह देकर अपने इलाके का विकास नहीं किया। यह शिकायत बलिया वालों को भी रही है।
आज उदारवाद के दौर में जब आम आदमी की आवाज लगातार अनसुनी की जा रही है। उसकी परेशानियों पर किसी का ध्यान नहीं है। उदारीकरण की बयार में लोगों के साथ लगातार अन्याय हो रहा है। ऐसे माहौल में समाजवादी पार्टी एक बार फिर अपने रौ में लौटती दिख रही है। जनसंघर्षों और सरोकारों से जुड़ने की कोशिश कर रही है, ऐसे मौके पर छोटे लोहिया याद आते रहेंगे।

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