Saturday, March 24, 2012


मोहन धारिया और टाइम की उम्मीदों पर कितना खरा उतरेंगे मोदी
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खबरों में रहना आता है। हासिल हुए मौकों को अपने पक्ष में मोड़ने और प्रचारित करने में भी उन्हें महारत हासिल है। 2002 के गुजरात दंगों के दाग़ की वजह से मीडिया और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के निशाने पर रहना मोदी की नियति हो गई है। लेकिन इसके बावजूद मोदी का ये कमाल ही कहेंगे कि वो मीडिया को अपने तईं इस्तेमाल कर लेते हैं और सारा मजमा लूट ले जाते हैं। गुजरात के विकास कार्यों में जिस मुस्तैदी से वे जुटे हैं, उसके चलते अब उनके विरोधी भी मानने लगे हैं कि उनका राजनीतिक दमखम 2014 के आम चुनावों में बतौर बीजेपी नेता दिख सकता है। तभी तो कभी जनता पार्टी से दोहरी सदस्यता के नाम पर अलग होने वाले युवा तुर्क मोहन धारिया भी ये कहने से खुद को रोक नहीं पाते कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें खुशी हुई।
अभी हाल ही में पुणे के एक कार्यक्रम में मोहन धारिया ने कहा -
'अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं, तो उन्हें बहुत खुशी होगी। वे अकेले ही अच्छा शासन सुनिश्चित कर सकते हैं। गुजरात की उपलब्धियां उनकी क्षमता की जीती जागती मिसालें हैं।'
मोहन धारिया राजनीति से भले ही इन दिनों अलग हों, लेकिन वे मामूली हस्ती नहीं हैं। वनराई नाम से स्वयंसेवी संगठन चला रहे मोहन धारिया का आरएसएस या भारतीय जनता पार्टी से कभी नाता नहीं रहा है। फिर मोहन धारिया ऐसी शख्सियत भी नहीं रहे, जो हर मौके पर अपनी जुबान खोलकर मौजूदा राजनीति से होड़ लेते रहे हों। साठ के दशक में जो युवा तुर्क भारतीय राजनीति में बदलाव की नई पटकथा लिख रहे थे, उनके एक अहम सदस्य वे रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, पूर्व उप राष्ट्रपति कृष्णकांत, रामधन जैसे लोग समाजवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि से कांग्रेस में आने के बाद छा गए थे। उसी ग्रुप के एक अहम सदस्य मोहन धारिया भी रहे हैं। इन्हीं युवा तुर्कों की रिपोर्ट पर इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और राजाओं को मिल रहे प्रिविपर्स को खत्म किया था। भारतीय राजनीति में समाजवादी मूल्यों की नई पटकथा लिखने वाले तब को नौजवान नेताओं को पहली बार टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन संपादक शामलाल ने यंग टर्क यानी युवा तुर्क की उपाधि दी। जो इन नेताओं के नाम के साथ सदा के लिए चस्पा हो गया। युवा तुर्कों में से अब सिर्फ मोहन धारिया ही जिंदा हैं। 1980 में जनता पार्टी की हार और उसमें आए बिखराव के बाद मोहन धारिया ने राजनीति की पथरीली पगडंडी से विदा ले ली और समाजसेवा के कंकड़ भरे रास्तों को अपना लिया। लेकिन समाजवादी विचार और धर्मनिरपेक्ष जीवन शैली से उनका नाता बना रहा। ऐसे मोहन धारिया को अगर मोदी में प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नजर आती है और उनकी अगुआई में उन्हें देश का भविष्य महफूज लगता है तो इसके अपने खास मायने हो सकते हैं।
नरेंद्र मोदी को लेकर भारतीय जनता पार्टी के विचारों के ठीक विपरीत ध्रुव पर ताजिंदगी खड़े रहे सिर्फ मोहन धारिया के ही विचार नहीं बदले हैं। बल्कि दुनिया में धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता का अलंबरदार मानी जाती रही अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को भी नरेंद्र मोदी में 2014 के चुनावों के लिए संभावनाएं नजर आ रही हैं। अपनी ताजा कवर स्टोरी में इस पत्रिका ने मोदी और राहुल के बीच संभावित मुकाबले पर लिखा है ‘ 61 साल के मोदी ही ऐसे प्रतिद्वंद्वी दिखाई पड़ रहे हैं जिनका ट्रैक रिकॉर्ड और पहचान राहुल गांधी से मुकाबले लायक है। कई लोग उनका नाम गुजरात में 2002 में हुए दंगों से जोड़ते हैं, लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो यह मानते हैं कि मोदी ही ऐसी शख्सियत हैं जो देश को धुर भ्रष्टाचार और अक्षमता से बाहर निकाल सकते हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि ऐसा दृढ़ नेता ही देश को विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ा सकता है ताकि भारत चीन जैसे देशों की पांत में शामिल हो सके।'
मोदी विरोधी कह सकते हैं कि टाइम पत्रिका को मोदी और उनके चाहने वालों ने मैनेज कर लिया है। हालांकि पत्रकारिता की दुनिया में टाइम मैगजीन की अपनी साख रही है। यह सच है कि अमेरिकी हितों का वह ध्यान रखती है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि टाइम के प्रकाशक देश अमेरिका ने अब तक नरेंद्र मोदी को वीजा नहीं दिया है। यानी मोदी को लेकर अमेरिकी सरकार और प्रशासन का रवैया जगजाहिर है। ऐसे में टाइम अगर उन्हें लेकर कोई कवर स्टोरी प्रकाशित करती है तो जाहिर है कि उसे भी कहीं न कहीं मोदी की क्षमताओं पर भरोसा है। दूसरी तरफ मोहन धारिया हैं, जो उम्र के अपने आखिरी पड़ाव पर हैं। मोहन धारिया के इस विचार के बाद याद आता है प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये का आखिरी लेख। 1995 में लिखे अपने लेख में उन्होंने कांग्रेस को देश की एकता के लिए जरूरी बताया था। जिंदगी भर कांग्रेस के धुर विरोधी रहे मधु लिमये के इस लेख को कांग्रेस अपने लिए प्रमाणपत्र की तरह इस्तेमाल करती रही है। मधु लिमये ताजिंदगी कांग्रेस की नीतियों और उसके वंशवाद के विरोधी रहे। 1977 में उसे हराने और सत्ता से बाहर करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। लेकिन आखिर में देश को बचाने की उम्मीद उन्हें कांग्रेस में ही नजर आई। मोहन धारिया भी दोहरी सदस्यता के मसले पर मधु लिमये की ही तरह जनता पार्टी से अलग हुए थे। लेकिन अब उन्हें भी नरेंद्र मोदी में ही संभावनाएं नजर आने लगी हैं। जाहिर है कि विचारों के विपरीत ध्रुव पर खड़ी पत्रकारिता या शख्सियत अगर मोदी की अहमियत स्वीकार करने लगीं हैं तो यह तो मानना ही होगा कि उनमें जरूर कोई बात है।
लेकिन क्या नरेंद्र मोदी की राह इतनी आसान है...मोहन धारिया भी राजनेता रहे हैं। उन्हें भी पता होगा कि नरेंद्र मोदी की दृष्टि में कहीं न कहीं एक खास तरह का संकुचन है। इसका उदाहरण है हाल के विधानसभा चुनाव। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी वापसी के लिए जीवन-मरण के सवाल से जूझ रही है। यह सच है कि 2014 की लड़ाई में उत्तर भारत के मैदान पर जीत हासिल नहीं हुई तो मोहन धारिया की उम्मीदें शायद ही परवान चढ़ पाएं। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि मोदी जैसा राजनेता इस हकीकत से वाकिफ ना हो। लेकिन प्रचार में उनकी मौजूदगी कहीं नजर नहीं आई। उत्तर प्रदेश ही क्यों, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में भी मोदी की उम्मीद पाले भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता बैठा रहा। लेकिन उसकी उम्मीदें फलीभूत नहीं हुईं। क्या ऐसा कार्यकर्ता मोदी को आसानी से स्वीकार कर पाएगा। मोदी के लिए सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है। उन्होंने जिस तरह पार्टी के हितों को किनारे रखा, उससे उनकी अक्खड़ता का ही बोध हुआ। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तीसरे नंबर के आधार के सहारे ही मोदी के भविष्य की पटकथा लिखी जाएगी। इस सवाल का जवाब खुद मोदी और उनके समर्थकों को भी खोजना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर अगुआई करने के लिए उन्हें इन सवालों से ना सिर्फ जूझना होगा, बल्कि उनका माकूल जवाब भी तलाशना होगा। मोदी के शख्सियत की ये कमियां ही हैं कि टाइम पत्रिका ने उन्हें विवादित, महत्वाकांक्षी एवं चालाक राजनेता बताया है। टाइम ने अपनी कवर स्टोरी में गुजरात के लोगों तक पहुंचने के लिए मोदी के दिन भर के सद्भावना उपवासों का भी उल्लेख किया है। हालांकि टाइम को लगता है कि यह मोदी के बदलाव का अंदाज है। टाइम के मुताबिक यह उनके आत्मशुद्धि, नम्रता और राज्य के लोगों को जोड़ने का भी काम है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये सारी चीजें वे अपनी ही पार्टी भारतीय जनता पार्टी में कर पाएंगे। मोहन धारिया की उम्मीदें और टाइम के आकलन मोदी के इन प्रयासों और बदलाव के अंदाज की कामयाबी पर ही निर्भर करेंगे। 

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