Friday, May 25, 2012


उच्च शिक्षा व्यवस्था पर फिर उठा सवाल
उमेश चतुर्वेदी
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था और आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। उलटबांसियों के बीच आगे बढ़ती अपनी अर्थव्यवस्था का मंदी से जूझ रहे अमेरिका और यूरोप के देश भी मानने लगे हैं। ऐसे में अव्वल तो होना यह चाहिए था कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी कम से कम दुनिया के स्तर की होनी चाहिए। निश्चित तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए गंभीर और गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। नालंदा और तक्षशिला जैसे गुणवत्ता आधारित विश्वविद्यालयों की परंपरा वाले देश में ऐसी उम्मीद भी बेमानी नहीं है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास -21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और दुनिया के सामने उसकी हैसियत की पोल खोल कर रख दी है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत की उच्च शिक्षा 48 वें स्थान पर है। दुनिया के जाने-माने 21 विश्वविद्यालयों के इस संगठन के आकलन के मुताबिक पहले नंबर पर अमेरिका की उच्चशिक्षा व्यवस्था है, जबकि गुणवत्ता के आधार पर दूसरे नंबर पर स्वीडन की शिक्षा का स्थान आता है। तीसरे नंबर पर कनाडा है। इस सूची में भारत का स्थान ब्रिक यानी ब्राजील, रूस और चीन के बाद आता है।
इस रिपोर्ट के बहाने भारतीय उच्चशिक्षा की गुणवत्ता और उसके हालात की मीमांसा के पहले हमें जान लेना चाहिए कि यूनिवर्सिटास ने किन-किन आधारों पर रिपोर्ट तैयार की है। इस सर्वे में उच्च शिक्षा में सर्वे, उच्च शिक्षा में युवाओं की हिस्सेदारी, 24 साल के अधिक उम्र वाले युवाओं की औसत योग्यता और 25-64 साल के बीच के उम्र वालों के बीच बेरोजगारी दर को आधार बनाया गया है। इस आधार पर भारतीय शिक्षा व्यवस्था और खासतौर पर उच्च शिक्षा की दशा-दिशा पर विचार करने पर सवाल भी उठ सकते हैं। आखिर जिस देश में 22 करोड़ विद्यार्थी स्कूली शिक्षा ले रहे हों और उनमें से सिर्फ एक करोड़ 60 लाख युवाओं को ही उच्च शिक्षा में दाखिला मिल पाता हो, ऐसे में उच्च शिक्षा में दाखिले के आधार पर देश को पिछड़ना ही है। फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इसी देश में हर साल तीस लाख विद्यार्थी ग्रेजुएट बन रहे हों और उनमें से महज तीन लाख को अच्छी नौकरियां मिल पाती हों, वहां उच्च शिक्षा की तरफ आकर्षण कैसे बढ़ सकता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले बच्चों में से सिर्फ एक फीसद ही अच्छी नौकरियों के हकदार हैं ? बाकी 99 प्रतिशत के लिए तो तेजी से बदलते रोजगार परिदृश्य में अवसर घटते ही जा रहे हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में उच्च शिक्षा की तरफ आकर्षण कैसे बढ़ेगा ? इस सवाल पर भी विचार किए जाने की जरूरत है। इसलिए यूनिवर्सिटास के निष्कर्षों से सहमत होने के बावजूद भी असहमति के कम से कम ये आधार तो हैं ही। हां देश में शोध की गुणवत्ता पर सवाल उठाए जा सकते हैं। देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में शोध का मतलब सिर्फ ज्ञान और सूचनाओं को उलथा करना भर रह गया है। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा पर अब भी सकल घरेलू उत्पाद का चार फीसदी से ज्यादा खर्च नहीं किया जा पा रहा है। हालांकि सरकार पिछले कुछ सालों से बजट पेश करते वक्त शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसदी और स्वास्थ्य पर ढाई फीसदी खर्च करने का दावा करती तो है। लेकिन है कि हकीकत में ऐसा नहीं हो पा रहा है। जबकि चीन ने अपनी जीडीपी का चार फीसदी खर्च करके अपने शिक्षा तंत्र ही हालत कम से कम भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में बेहतर जरूर बना ली है।
यह ठीक है कि हम शिक्षा में अमेरिका जितना खर्च नहीं कर सकते। लेकिन हम अपने उन प्रतिभाशाली युवाओं को सहारा तो जरूर दे सकते हैं। लेकिन हालात इसके बिल्कुल उलट हैं। जब से शिक्षा को निजी हाथों में सौंपा जाना शुरू हुआ है, सरकारी उच्च शिक्षा भी महंगी हुई है। इसका असर यह है कि 75 फीसदी विद्यार्थियों के पास कॉलेज की फीस जमा करने के पैसे नहीं होते। फिर कई सारे युवा ऐसे भी होते हैं, जिन्हें पारिवारिक मजबूरियों की वजह से स्कूली शिक्षा पूरी करते ही छोटी-मोटी नौकरियां करनी पड़ जाती हैं। देश में आजादी से पहले महज 20 विश्वविद्यालय और 500 कॉलेज थे। तब पाकिस्तान और बांग्लादेश भी हमारा हिस्सा था। आज देश में 545 विश्वविद्यालय और 45 हजार कॉलेज हैं। तरह-तरह के नये कॉलेज और खुलते जा रहे हैं। यह भी ठीक है कि कई सारे कॉलेजों में दाखिले के लिए बहुत जतन करने पड़ते हैं,  मगर यह भी सच है कि बहुत से कॉलेज, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, विद्यार्थियों का इंतजार करते रह जाते हैं। यूनिवर्सिटास की रिपोर्ट के आइने में इन सारे सवालों से भी हमें जूझना होगा।
यह सच है कि आर्थिक तरक्की के चलते एक वर्ग ऐसा जरूर पैदा हुआ है, जिसके पास अपने बच्चों को ऊंची और महंगी तालीम दिलाने के लायक पैसा है। उनका मकसद भारतीय संस्थानों की बजाय यूरोप और अमेरिका के संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाना भी है। तो क्या यह मान लिया जाय कि यूनिवर्सिटास ने अपने नतीजे के लिए जानबूझकर ऐसे-ऐसे आधार जोड़े, जिससे तीसरी दुनिया के देशों के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग कमतर दिखाई जाय और उन देशों के धनाढ्य वर्ग के विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित किया जाय। 

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