Wednesday, May 30, 2012


क्या संगमा बनेंगे कलाम !
उमेश चतुर्वेदी
इसे ही शायद लोकतंत्र कहते हैं...अपनी ही पार्टी साथ देने को तैयार नजर नहीं आती। इसके बावजूद देश का पहला नागरिक बनने की दौड़ में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा शामिल हो चुके हैं। वैसे तो इस दौड़ में वे खुद को पहले से ही शामिल कर चुके थे, लेकिन बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक ने उनका साथ देकर उनकी उम्मीदवारी को थोड़ा गंभीर जरूर बना दिया है। थोड़ा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक मंडल का सिर्फ तीन-तीन फीसदी मत ही दोनों दलों के पास है। जाहिर है कि इतने कम मत से रायसीना हिल की दौड़ जीतना असंभव ही है। पीए संगमा ने जिस आदिवासी कार्ड के बहाने अपना नाम आगे बढ़ाया है, उसे उनकी अपनी ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी साथ नहीं दे रही तो दूसरों से क्या उम्मीद की जाती।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अब भी इस मसले पर ना-नुकुर कर रही है। लेकिन दो दलों के साथ ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी पर समर्थन देने का दबाव बढ़ा दिया है। संगमा दावा कर रहे हैं कि उनकी कांग्रेस के आदिवासी नेता अरविंद नेताम और किशोर चंद्र देव के साथ ही बीजेपी के आदिवासी नेता करिया मुंडा से बात हो चुकी है और वे भी देश के प्रथम नागरिक के तौर पर किसी आदिवासी शख्सीयत को देखने के उनके विचार से सहमत हैं।  संगमा यहीं नहीं रूके हैं। वे सीपीएम महासचिव प्रकाश करात से मिल चुके हैं, सीपीआई से मिलने वाले हैं। अपना समर्थन जुटाने के लिए अकेले ही अभियान छेड़ रखा है। यह ठीक है कि मुलायम सिंह ने यूपीए सरकार की तीसरी वर्षगांठ पर एक तरह से कांग्रेस के उम्मीदवार के साथ का संकेत देकर संगमा के लिए समर्थन के दरवाजे बंद कर दिए हैं। लेकिन राजनीति में कोई भी सत्य आखिरी नहीं होता। परिस्थितियां उसे आखिरी सत्य बनाती हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या सिर्फ आदिवासी कार्ड के नाम पर पीए संगमा राष्ट्रपति भवन की मंजिल पा सकते हैं!
यह सच है कि अभी भी कोई आदिवासी देश के पहले नागरिक के तौर पर मुगल गार्डेन की सैर नहीं कर पाया है। लेकिन मुगल गार्डेन में संगमा की सैर की राह में कई किंतु और परंतु हैं। उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा वह कांग्रेस है, जिसके साये में संगमा ने 2003 के पहले तक ना सिर्फ राजनीति की, बल्कि सत्ता के कई शिखरों को छूने में कामयाब रहे। मेघालय के मुख्यमंत्री से लेकर लोकसभा अध्यक्ष तक की गरिमामयी यात्रा में वे कांग्रेस के सिपाही बने रहे। लेकिन 2003 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल पर कांग्रेस से अलग होकर जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन हुआ, उसके असल पैरोकार शरद पवार और पीए संगमा ही थे। ऐसे में सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस वाकये को भूल पाएंगी। कांग्रेस में अपने आलाकमान से इतर सोचने की परंपरा भले ही रही हो, बोलने की परिपाटी नहीं रही है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस ने अभी तक संगमा की उम्मीदवारी पर टिप्पणी से परहेज किया है। इससे साफ है कि सोनिया गांधी और कांग्रेस शायद ही संगमा के लिए मन बना पाएं। ऐसे में राष्ट्रपति भवन तक की संगमा की दौड़ कैसे पूरी हो सकती है। लेकिन संगमा की राह की यह बाधा ही उनके लिए उत्साह की बात है। लेकिन इसके लिए उन्हें पहले कम से कम कुछ और छोटी पार्टियों से इतना समर्थन जुटाना होगा। जो उनकी राह को आसान बना सके। संगमा के लिए उत्साह की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी इस दौड़ को तटस्थ लेकिन पैनी नजर से देख रही है। अगर संगमा को छोटी पार्टियों का साथ मिला तो यह तय है कि बीजेपी उन्हें उम्मीदवार के तौर पर लपकने में देर नहीं लगाएगी।
संगमा को अपनी उम्मीदवारी के लिए अभी लंबी यात्रा पूरी करनी है। हालांकि एक दौर में वे अपनी ही एनसीपी से अलग होकर मेघालय के चुनाव में उतर चुके हैं। तब उन्हें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने साथ दिया था। लिहाजा राष्ट्रपति भवन की उनकी दौड़ में संगमा को ममता के समर्थन की उम्मीद बेमानी नहीं है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की असंतुष्ट सहयोगी ममता बनर्जी जिस तरह अपने गठबंधन के ज्यादातर फैसलों के खिलाफ जा रही हैं, उससे ममता का साथ संगमा को मिलने की उम्मीदें बढ़ गई हैं।
संगमा के लिए उम्मीद की दूसरी किरण जनता दल यू भी है। ठीक ममता की तर्ज पर जनता दल यू भी गठबंधन के अपने प्रमुख सहयोगी बीजेपी की परवाह कम ही कर रहा है। खासतौर पर राजनीतिक मसलों पर बीजेपी की भावनाओं की कद्र भी करना उसने छोड़ दिया है। जनता दल यू की अब तक की जैसी राजनीति रही है, उसमें उसे आदिवासी कार्ड मुफीद लग सकता है, लिहाजा उसका भी साथ संगमा को मिल सकता है। अगर इतने दल समर्थन दे दें तो संगमा की अपनी पार्टी पर भी साथ देने का नैतिक दबाव बढ़ जाएगा। और अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी भी समर्थन की दौड़ में शामिल हो सकती है। इसकी वजह दो है। संगमा के साथ लालकृष्ण आडवाणी से रिश्ते भी अच्छे हैं, फिर लाख कोशिशों के बावजूद बीजेपी पूर्वोत्तर में अपना मजबूत आधार नहीं तैयार कर पाई है। उसकी कोशिश पूर्वोत्तर में अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराना भी है। संगमा को समर्थन उसके लिए पूर्वोत्तर में अपनी जड़ों के विस्तार का बहाना बन सकता है। जिन्हें बीजेपी की इस रणनीति पर एतराज हो, उन्हें 2002 के राष्ट्रपति चुनाव को याद कर लेना चाहिए। तब बीजेपी महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल पीसी एलेक्जेंडर या फिर भैरोसिंह शेखावत को राष्ट्रपति बनाना चाहती थी। लेकिन कांग्रेस के फच्चर के चलते ऐसा संभव नहीं हुआ। इसी बीच पोखरन विस्फोट के हीरो मिसाइल मैन अब्दुल कलाम का नाम मुलायम सिंह यादव ने आगे किया और उनके नाम को लपकने में बीजेपी ने देर नहीं लगाई। और देखते ही देखते ऐसा राजनीतिक समां बना कि कलाम राष्ट्रपति भवन पहुंच गये। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति में कोई भी सत्य आखिरी नहीं होता। बहरहाल संगमा के साथ आने के लिए 2002 जैसी ही बयार बह चली तो कांग्रेस के लिए विकल्प सीमित होते जाएंगे।  ऐसे में संगमा मजबूत दावेदार बनकर उभर आएं तो हैरत नहीं होनी चाहिए। वैसे आखिरी फैसले के पहले तक तमाम उतार-चढ़ाव आना-जाना सियासत की फितरत है। लिहाजा संगमा के लिए फिलहाल उम्मीद ही की जा सकती है।

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