Sunday, December 30, 2012

दिखने लगे आर्थिक उदारीकरण के साइड इफेक्ट



उमेश चतुर्वेदी
उदारीकरण के दौर में जब भी कोई नया फैसला लिया जाता है, सरकार का एक ही दावा होता है इससे नए रोजगार पैदा होंगे और इससे बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। लेकिन उदारीकरण की योजनाओं को लागू करने के लिए बढ़-चढ़कर किए जाने वाले दावों की पोल भी खुलने लगी है। इन दावों को खारिज करने और उन पर सवाल कुछ सामाजिक संगठन और अर्थशास्त्री उठाते रहे हैं। लेकिन नई आर्थिकी के सरकारी पैरोकार इन सवालों को अनसुना करते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि नई आर्थिकी के बड़े पैरोकार मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अगुआई वाले योजना आयोग ने भी मान लिया है कि यूपीए के शुरूआती छह साल के शासन काल में अकेले विनिर्माण क्षेत्र में ही करीब पचास लाख नौकरियां खत्म हो गईं। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक यूपीए शासन के पहले विनिर्माण क्षेत्र में करीब पांच करोड़ 57 लाख नौकरियां थीं, वे 2004 से 2010 के बीच घटकर महज पांच करोड़ सात लाख ही रह गईं। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि यूपीए दो की वापसी में जिस यूपीए एक की कामयाबियों का ढिंढोरा पीटा गया, दरअसल ये नौकरियां उसी दौर में खत्म हुईं। ध्यान देने वाली एक बात और है कि इसी दौर में आठ से लेकर साढ़े आठ फीसदी तक की विकास दर का दावा रहा है।

इन आंकड़ों से एक बात साफ हुई है कि उदारीकरण की शुरूआत में भले ही रोजगार के क्षेत्र में तेजी दिखी, लेकिन उदारीकरण की रफ्तार पर पटरी पर आने के बाद कम कुशल या बदलती आर्थिक जरूरतों में कम उपयोगी होते लोगों की मांग में गिरावट आती गई है। जिस देश में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या करीब नौ करोड़ हो, उसमें पचास लाख नौकरियों में गिरावट आना मामूली बात नहीं है। योजना आयोग के इन आंकड़ों से एक और भयावह तस्वीर की आशंका बढ़ जाती है। नौकरियों में गिरावट की यह संख्या अच्छी विकास दर के दौर की है। लेकिन पिछले डेढ़ साल से अर्थव्यवस्था की विकास दर में लगातार गिरावट आती जा रही है। खुद योजना आयोग के मुताबिक इन दिनों विकास दर 6.7 फीसदी के करीब है। जो उदारीकरण के दौर में भारतीय विकास दर के स्वर्णिम दिनों यानी साढ़े आठ फीसदी से करीब दो फीसदी कम है। यानी अगर आज के दौर में रोजगार से जुड़े आंकड़ों को लेकर साल-दो साल बाद जो आखिरी नतीजे आएंगे, वे मौजूदा दौर की और बदहाली की ही पोलपट्टी खोलेंगे। यानी तय है कि नौकरियों की संख्या में लगातार आ रही गिरावट की ही जानकारी इनमें होगी।
इन आंकड़ों की तरफ इशारा नमूना सर्वे की 68 वीं सालाना रिपोर्ट ने पहले ही कर दिया था। जब उसने बताया था कि इस देश में अब भी आठ करोड़ 33 लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोजाना महज बीस रूपए पर गुजारा करना पड़ रहा है। आखिर जब बेरोजगारी रहेगी और बढ़ेगी तो निचले स्तर पर खपत का स्तर कैसे बढ़ेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश आंकड़ों के मायाजाल में उलझे रहने वाले नीतिकारों ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। जिसका नतीजा यह है कि अब नई अर्थव्यवस्था के साइड इफेक्ट दिखने लगे हैं। जिस बारहवीं पचंवर्षीय योजना के दस्तावेज में योजना आयोग ने यह भयावह तस्वीर पेश की है, उसने एनडीए शासन काल को विनिर्माण क्षेत्र के लिए दूसरे शब्दों में बेहतर ही बताया है। इस दस्तावेज के मुताबिक 2000 से 2004 के बीच विनिर्माण क्षेत्र में नौकरियों में बढ़ोत्तरी ही देखी गई। इसके पहले जहां विनिर्माण क्षेत्र में चार करोड़ चालीस लाख नौकरियां थीं, वह इन चार वर्षों में साढ़े पांच करोड़ हो गई। यानी उस दौर में बिल्डरों और निर्माण उद्योग में काफी तेजी आई थी। लेकिन सवाल यह है कि इस क्षेत्र को जिस तरह से अंधाधुंध ढंग से खोला गया और पूरे देश को निर्माण का जैसे अड्डा बनाया गया, उससे जमीनी विवाद भी बढ़े और उसकी सीमा भी तय होती चली गई। जिसका असर यह है कि अब यह उद्योग चरमराने लगा है। महंगाई अपने चरम पर है, घर और मॉल खाली हैं और नौकरियां नदारद हैं।
देसी उद्योगों और पारंपरिकता के साथ आधुनिकता के बीच संतुलन बनाए रखने की समावजादी परंपरा नई आर्थिकी के दौर में मजाक का पात्र बन गई है। स्वदेशी की अवधारणा को सांप्रदायिकता से इतना घालमेल कर दिया गया है कि अब उनके विचारों पर भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बल्कि उन्हें देश हित में प्रतिगामी बताने वालों का एक पूरा का पूरा वर्ग खड़ा हो गया है। हाल के दिनों में जब खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की राह खोली गई तो इस विचारधारा ने करीब बीस करोड़ लोगों की रोटी और चार करोड़ लोगों की रोजी के संकट में पड़ने की आशंका जताई थी। जिसे नई आर्थिकी के पैरोकारों ने सफाई से नकार दिया। लेकिन योजना आयोग की तरफ से जारी बारहवीं पंचवर्षीय योजना का दस्तावेज स्वदेशी और समाजवादी धारा की आशंकाओं की तरफ भी इशारा करता है। यानी हो सकता है कि खुदरा क्षेत्र को खोलने के बाद बड़ी कंपनियां फौरी तौर पर कुछ ज्यादा रोजगार का सृजन कर दें और बाद में मामला दबने के बाद इसमें कटौती करनी शुरू कर दें। तब खुदरा को खोलकर पारंपरिक किराना मार्केट को ध्वस्त करने वालों के पास क्या जवाब होगा, यह सोचने की बात है। इस आशंका को बल इसी बात से मिलता है कि खुद योजना आयोग का दस्तावेज मानता है कि अगले पंद्रह सालों में देश के करीब 18 करोड़ 30 लाख लोगों के सामने रोजगार का संकट होगा। यह उस देश की आशंका है, जहां संगठित क्षेत्र में रोजगार लगातार कम होता जा रहा है। सामाजिक सुरक्षा वाली नौकरियों की संख्या में लगातार गिरावट आती जा रही है। लेकिन नई आर्थिकी के पैरोकार विकास का दावा ही ठोक रहे हैं।
बहरहाल योजना आयोग का यह दस्तावेज नई आर्थिकी के पैरोकारों को चेतावनी दे रहा है कि उनकी योजनाओं के भी साइड इफेक्ट हैं और वक्त रहते इन पर जल्दी से काबू पाया जाना जरूरी है। अन्यथा आने वाले दिनों में इसका असर सामाजिक संबंधों पर पड़े बिना नहीं रहेगा। जिसे संभाल पाना आसान नहीं होगा।

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