Saturday, March 16, 2013

दया याचिका, राजनीति और राष्ट्रपति

उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब और फिर संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी के बाद दया याचिकाओं के निबटारे को लेकर राजनीति तेज हो गई है। वैसे तो कुछ एक मानवाधिकारवादियों को छोड़ दें तो अजमल कसाब को माफी ना देने को लेकर पूरा देश एक था। शायद इसकी एक बड़ी वजह कसाब का पाकिस्तानी आतंकवादी होना था। लेकिन अफजल गुरू की फांसी को लेकर देश का एक बड़ा तबका और राजनीति विरोध में खड़ी  थी।
अफजल गुरू की फांसी के तत्काल बाद जिस तरह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाए, वह विरोध का ही एक तरीका था। लेकिन यह सच है कि राष्ट्रपति के पास लंबित दया याचिकाओं को लेकर राजनीति होती रही है। भारतीय जनता पार्टी तो अफजल गुरू को फांसी देने का सवाल तकरीबन हर मंच से ना सिर्फ उठाती रही है, बल्कि वह दया याचिका के निबटारे पर सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़े करती रही है। दया याचिका पर शायद विवाद ही बड़ी वजह है कि दया याचिकाओं को लेकर राष्ट्रपति के आधिकारिक वेबसाइट पर जो लिंक दिया गया था, वह 14 फरवरी को हटा दिया गया है। इस लिंक में ऑन लाइन दया याचिका दायर करने की सुविधा भी थी और लंबित दया याचिकाओं की जानकारी भी। लेकिन इसे अब हटा दिया गया है। लेकिन राष्ट्रपति भवन ने इसकी जानकारी देने से इनकार कर दिया है।
मोटे तौर पर फैसले लेने में देरी की वजह ही राष्ट्रपति के समक्ष लंबित दया याचिकाओं पर राजनीति का आरोप का आधार बनती रही है। लेकिन इसके लिए एक हद तक संवैधानिक उपबंध भी जिम्मेदार हैं। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को फांसी और दूसरी सजाएं प्राप्त दोषी की सजा कम करने या छोड़ देने का अधिकार है। यही व्यवस्था राज्यों के क्षेत्राधिकार के अपराधों को लेकर राज्यपालों को भी अधिकार देती है कि वे राज्य के अपराधियों को माफ कर दें या फिर उनकी सजा घटा दें। हालांकि राज्यपालों को यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत मिला हुआ है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि दोनों ही उपबंध ना तो राष्ट्रपति के लिए ना ही राज्यपाल को समय के दायरे में नहीं बांधते। जिसका इस्तेमाल सही मायने में कार्यपालिका यानी सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिए करती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2012 में अपने एक आदेश में कहा था कि दया याचिकाओं पर जल्द से जल्द फैसले होने चाहिए। इसमें देरी से अपराधी तिल-तिल कर मरता है और उसके मनो-मस्तिष्क पर इसका उल्टा असर पड़ता है। वैसे तो राष्ट्रपति या राज्यपाल के समक्ष भले ही  दया याचिकाएं दायर की जाती हों, लेकिन संवैधानिक उपबंधों के मुताबिक राज्यपाल या राष्ट्रपति उन याचिकाओं पर सीधे फैसले नहीं ले सकते। वे दया याचिकाओं को सरकार यानी गृहमंत्रालय के पास भेज देते हैं। वहां से फिर सिफारिश आती है और उसे माने या ना माने का अधिकार राज्यपाल या राष्ट्रपति का होता है। चूंकि भारतीय संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति या राज्यपाल सरकार की अनुशंसा पर ही काम करता है, लिहाजा आखिरी फैसला सरकारों का ही होता है। कई बार देरी का बहाना प्रशासनिक फाइलबाजी को भी बनाया जाता है। आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। 2009-12 में गृह मंत्रालय ने 26 ऐसे केसों को फिर से जांचा-परखा, जिन पर पूर्व राष्ट्रपतियों ने विचार नहीं किया था। पुनरीक्षण के बाद इन मामलों में गृहमंत्रालय ने नई सलाहें दीं। तब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल थीं और उन्होंने ज्यादातर मामलों में फांसी की सजा पाए अपराधियों की सजा कम करके आजीवन कारावास में बदल दिया था। पाटिल ने 35 मामलों पर निर्णय लिया, जिसमें से नवंबर 2009 से जून 2012 तक 21 मामले लंबित थे।
दया याचिकाओं की लंबित होने की कुछ और भी वजहें हैं। मसलन कई बार दया याचिकाओं पर उन राज्यों की विधानसभाएं तक उस राज्य विशेष के अपराधी के मामले में हस्तक्षेप करती हैं। तमिलनाडु की विधानसभा ने 30 अगस्त 2012 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने का प्रस्ताव ही पारित कर दिया। राज्य की चुनी हुई विधानसभा अगर ऐसे प्रस्ताव पारित करेगी तो जाहिर है कि कड़े से कड़े केंद्र को किसी अपराधी को सजा देने में कठिनाई होगी ही। कई बार इसकी वजह क्षेत्रीय राजनीति तो कई बार धार्मिक मामले भी आधार बनते हैं। इसी तरह मद्रास उच्च न्यायालय ने 30 अगस्त, 2012 को 11 वर्षों की देरी के लिए इन हत्यारों की फांसी पर अंतरिम स्टे पारित किया।इसी तरह से पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में शामिल रहे बलवंत सिंह राजौना को सजा सुनाए जाने पर पंजाब में आक्रोश पूर्ण प्रदर्शन देखे गए।
ऐसा नहीं कि भारतीय राष्ट्रपतियों ने दया याचिकाओं को लटकाए रखने की ही परंपरा डाली। देश के शुरू के दो राष्ट्रपतियों राजेंद्र प्रसाद और राधाकृष्णन ने कई दया याचिकाओं को अस्वीकार करके संविधान से मिली शक्तियों का बखूबी इस्तेमाल किया। उनके बाद आर. वेंकटरमन और शंकर दयाल शर्मा ने भी कमोबेश ऐसा ही किया। इन राष्ट्रपतियों ने इसका आधार बनाया आरोपी के हक में मजबूत सबूत का होना।
ऐसा नहीं है कि बाद के राष्ट्रपतियों ने दया याचिकाओं का निबटारा जानबूझकर नहीं किया। राजनीति और संविधान के जानकार मानते हैं कि बाद में जब कई बार कार्यपालिका अपनी ही सलाहों को बदलने लगी या उन पर विचार करने में टाल-मटोल शुरू कर दी। तब दया याचिकाओं के निपटारे में देरी होने लगी। खुद राजनीतिक आरोपों से बचने के लिए राष्ट्रपति ने हर मुमकिन वक्त तक उन्हें लटकाये रखने में ही अपनी भलाई देखी, चाहे इस दौरान उऩका कार्यकाल ही क्यों ना खत्म जाए। के.आर.नारायण, अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल का नाम इनमें सर्वोपरि है। हालांकि प्रतिभा पाटिल ने जिन  35 मामलों को निबटाया, उनमें से ज्यादातर उनके पूर्ववर्तियों के थे। कई ऐसे भी मामले हुए, जिनमें गृह मंत्रालय ने दया याचिका को खारिज करने की सिफारिश की, हालांकि जब राष्ट्रपति ने नई सरकार से सलाह लिया तो उसने फैसले को पलट दिया। कभी-कभी ऐसा हुआ कि राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज कर दी औऱ फिर से एक नई दया याचिका दाखिल हो गई और फांसी की सजा टल गई।
वैसे प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने से पहले ही यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि वे सिर्फ रबर स्टांप राष्ट्रपति नहीं होंगे। बल्कि वे नए कदम उठाएंगे। एक सूचना के मुताबिक हालांकि अब भी उनके सामने 17 दया याचिकाएं पड़ी हुई थीं, जिनमें से 13 फरवरी तक उन्होंने 8 याचिकाएं निबटा दी थीं। जिनमें से सात खारिज कर दी गईं। जबकि एक की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। बहरहाल जिस तरह उन्होंने पहले अजमल कसाब और फिर अफजल गुरू की दया याचिकाओं को नामंजूर किया और फैसले लेने में तत्परता दिखाई, उससे केंद्र सरकार पर इन दोनों को फांसी पर लटकाने का दबाव बढ़ गया। लेकिन राजनीतिक पंडितों का एक वर्ग यह भी मान रहा है कि अगर दोनों फांसियों में कांग्रेस
सियासी फायदा नजर नहीं आता तो शायद दोनों दोषी फांसी पर नहीं लटकाए जाते। क्योंकि अफजल गुरू को तो सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में ही सजा सुना दी थी। वैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फांसी की सजा को मुअत्तिल करने की मांग एक बार फिर बढ़ रही है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार और राजनीति में दखल रखने के चलते भारत पर भी दबाव है कि वह फांसी की सजा को खत्म करे। लेकिन भारत में एक बड़ा वर्ग अब भी सोचता है कि जघन्य अपराधियों को मृत्युदंड दिया ही जाना चाहिए। जाहिर है कि राष्ट्रपति की दया याचिकाएं भी बहस के इन विंदुओं के चलते तब तक केंद्र में बनी रहेंगी, जब तक इन पर कोई ठोस नीति नहीं बन जाती।

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