Wednesday, April 10, 2013

अपने-अपने प्रधानमंत्री


उमेश चतुर्वेदी
भोजपुरी इलाकों में एक कहावत कही जाती है...पेड़ पर कटहल और होठ पर तेल..यानी अभी कटहल पास आया नहीं...कि होठों पर तेल लगाकर उसका स्वाद उठाने और उसके समस्यामूलक गोंद से बचने की तैयारी कर ली। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को लेकर भारतीय जनता पार्टी में जारी कुछ ज्यादा और कांग्रेस की कमतर चर्चाओं को देखकर यह मुहावरा बार-बार याद आता है। बेशक इन चर्चाओं को विमर्श का जरिया बनाया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि ये चर्चाएं अभी तक गंभीर विमर्श की बजाय प्रहसनकारी चर्चाओं के तौर पर ही आगे बढ़ती नजर आ रही हैं। निश्चित तौर पर ऐसी चर्चाएं उस ब्रिटेन में भी चलती हैं, जहां को संसदीय लोकतंत्र और कार्यपालिका की वेस्ट मिंस्टर पद्धति हमने भी उधार लेकर उसे अपना बनाने की कोशिश की है। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि वहां विपक्षी दलों का बाकायदा छाया मंत्रिमंडल काम करता रहता है।
इस छाया मंत्रिमंडल के पास बेशक असल के मंत्रिमंडल जैसे संवैधानिक अधिकार नहीं होते, लेकिन यह छाया मंत्रिमंडल असल मंत्रिमंडल पर नीतियों, जनता की जरूरतों और हितों को ध्यान में रखकर विपक्षी राजनीतिक दल के अगुआ के नाते लोकतांत्रिक अंकुश बनाए रखता है। इस आधार पर देखें तो अपने देश में जारी अपने-अपने प्रधानमंत्री की चिंताएं क्या जनता के हितों के प्रति वैसी हमदर्दी और संजीदगी दिखा पा रही हैं...जो ब्रिटेन में नजर आती रही है। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। ऐसे में यह सवाल उठने लगे कि आखिर अपने-अपने प्रधानमंत्री की चिंताओं की आखिर इतना तूल देने की जरूरत ही क्या है।
वैसे भी संवैधानिक तौर पर यह चर्चा भी सही नहीं है। क्योंकि संविधान में साफ कहा गया है कि लोकसभा या विधानसभा में बहुमत हासिल प्राप्त राजनीतिक दल के सांसद और विधायक अपने नेता का चुनाव करेंगे, जो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का पद संभालेगा। लेकिन क्या संविधान की इस मूल भावना का असल में पालन ही हो पा रहा है। अव्वल तो पर्सनैलिटी कल्ट के आधार पर आजादी के बाद से ही चुनाव होता रहा है। जब तक नेहरू जिंदा रहे, चुनाव उनके ही नाम के समर्थन और विरोध में लड़े गए। बाद में यह हैसियत इंदिरा, राजीव, वीपी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के नामों की भी रही। इसी परंपरा में 2004 के चुनाव में सोनिया गांधी और 2009 में लालकृष्ण आडवाणी के नाम को भी रखा जा सकता है। पहले में जहां सोनिया ने अपने राजनीतिक और दूसरे कारणों से खुद ही प्रधानमंत्री पद हासिल नहीं किया तो आडवाणी को जनता का समर्थन ही हासिल नहीं हुआ। दोनों ही स्थितियां एक तथ्य के लिए साफ है कि शख्सियत आधारित चुनाव प्रक्रिया आम लोगों को एक हद तक पसंद भी आई तो एक हद तक इसे लोगों ने नकार ही दिया। इसलिए क्या यह जरूरी नहीं है कि ऐसी व्यक्ति केंद्रित बहसों को तिलांजलि देकर आम आदमी के सम्मान वाले लोकतंत्र पर बहसें केंद्रित करें, ताकि अगली बार अगर कोई शख्सीयत लोकतंत्र के सर्वोच्च महापर्व के जरिए प्रधानमंत्री पद रूपी चिड़िया की आंख पर किसी अर्जुन की तरह निगाह गड़ाए आगे बढ़े तो उसका मकसद महज चिड़िया की आंख में तीर को भेदना ही नहीं, आम आदमी का सम्मान कायम करना हो। तब शायद प्रधानमंत्री पद को लेकर जारी खींचतान और उसे लेकर बढ़ती बहसों को दिशा मिलेगी।
अध्यक्षीय लोकतंत्र में तो व्यक्ति आधारित बहस और उसे आगे बढ़ाने का अपना मकसद हो सकता है। क्योंकि वहां चुनाव सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच लड़े जाते हैं। अमेरिका जैसे देशों में व्यक्तियों के पीछे उनकी अपनी पार्टियों मसलन डेमोक्रेट और रिपब्लिकन की भी अपनी विचारधाराएं और नीतियां तो होती हैं। लेकिन उन पर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रही शख्सियतों के अपने एजेंडे भी होते हैं और उनके प्रति जनता को लुभाने की अपनी रणनीति भी होती है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र में सबसे ज्यादा महत्व चूंकि संसद का होता है और उसमें अपनी बढ़त हासिल करने की कोशिश में लोकतंत्र की अपनी शक्तियां यानी राजनीतिक दल जुटे रहते हैं। लिहाजा यहां शख्सीयत आधारित बहसों की बजाय राजनीतिक विचारधारा और नीति आधारित बहसों को जोर दिया जाना सैद्धांतिक तौर पर ज्यादा मुफीद हो सकता है। तब इन नीतियों के दम पर जीते राजनीतिक दलों को लागू करने और उसके जरिए देश को आगे बढ़ाने का नैतिक दबाव भी झेलना पड़ेगा। लेकिन जैसे ही यह बहस शख्सीयत केंद्रियता में तबदील हो जाती है। राजनीतिक दलों की अपनी नीतियों को व्यक्ति केंद्रित तत्वों के आधार पर बदलने या पारिभाषित करने का दौर शुरू हो जाता है।  इसके फायदे जितने नहीं हैं, उससे ज्यादा नुकसान होते हैं। चूंकि शख्सीयत केंद्रीय राजनीतिक अभियानों के तहत कई तरह के वायदे तो कर लिए जाते हैं। लेकिन संविधान से हासिल अधिकारियों और उसकी सीमाओं का ध्यान कम ही रखा जाता है। इसका असर यह होता है कि अगर शख्सीयत केंद्रीत बहसों और राजनीतिक अभियानों के बाद जिसको सत्ता हासिल होती है, वह या तो संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है और यदि वह मर्यादावादी हुआ तो संविधान की सीमाओं में बंधने को मजबूर हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में जनता ही ठगी जाती है। अगर उसकी उम्मीदें पूरी नहीं होती तो उसे ठगे जाने का भाव ज्यादा ही होता है। लेकिन अगर जनता से किए गए वायदे के मुताबिक काम करने के लिए संवैधानिक मर्यादाओं को तोड़ा जाता है तो वह भी लोकतंत्र के लिए मजाक ही होता है। इंदिरा गांधी अगर संसद को ताक पर रखकर आपातकाल लागू करने की हिम्मत दिखा पाईं तो उसकी बड़ी वजह यह थी कि जनता से हासिल लोकप्रियता के रथ पर सवार होने का मौका उन्हें शख्सीयत केंद्रित राजनीतिक अभियान और बहसों ने ही दिया था। जाहिर है कि ऐसी स्थितियों में जनता हर चुनाव के बाद एक कदम और पिछड़ जाती है और वह एक बार फिर खुद को ठगा हुआ महसूस कर सकती है।
लेकिन मशहूर राजनीतिशास्त्री प्रो के जे लास्की का प्रधानमंत्री पद को लेकर दिए वैचारिक निष्कर्ष को भी नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री कैबिनेट रूपी जहाज का मस्तूल होता है। यानी वह कैबिनेट को जिस तरफ चाहे मोड़ सकता है। अगर देखें तो  सामूहिक नेतृत्व की भावना के मुताबिक प्रधानमंत्री कैबिनेट के अपने सहयोगियों की कतार में सिर्फ पहला व्यक्ति ही होता है। लेकिन इंदिरा गांधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री के पद को सत्ता के केंद्र के तौर पर विकसित किया, उसमें लोकतंत्र की पहली शर्त ताकत के विकेंद्रीकरण की अवधारणा को चोट पहुंची और कैबिनेट के उनके साथी लगातार प्रधानमंत्री की तुलना में कमजोर होते गए। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस की तमाम राजनीति और नीतियों की आलोचना करने वाले दलों के नेता भी प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में इंदिरा जैसी ताकत हासिल करने की उम्मीद रखते हैं। उनका दुर्भाग्य कहें कि क्षेत्रीय राजनीति का इन दिनों जो उभार हुआ है, उसने एक हद तक इस अवधारणा को चोट पहुंचाई है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री का पद इतना ताकतवर तो है ही कि अब चाहकर भी शख्सीयत केंद्रित आम चुनावों से इनकार नहीं किया जा सकता।
भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद को लेकर मची होड़ और उसमें शामिल नाम नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और दबे-छुपे राजनाथ सिंह के नामों ने इन सारे नीतिगत सवालों के बावजूद प्रधानमंत्री पद पर बीजेपी की दावेदारी को कमजोर ही कर रहे हैं। कुछ यही हालत मनमोहन सिंह और राहुल गांधी को लेकर जारी बहस की भी है। इन सारी बहसों में ये सवाल पीछे छूट गए हैं कि आखिर प्रधानमंत्री बनाने लायक बीजेपी या कांग्रेस के पास ताकत आएगी भी या नहीं..। ऐसे में दोनों तरफ जारी यह बहस मूल मुद्दों से अगर ध्यान भटकाने की कोशिश हो तो वोटरों को हैरत नहीं होनी चाहिए।


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