Monday, August 12, 2013

बिना आईएएस राज्य सरकार कर सकती है काम


उमेश चतुर्वेदी
मुलायम सिंह यादव के घर में सबसे गंभीर और पढ़े-लिखे के तौर पर किसी को देखा जाता है तो वे रामगोपाल यादव हैं। जब पार्टी लाइन से बाहर आज के दौर में बेबाक बयानी राजनीतिक अनुशासनहीनता मानी जा रही हो। ऐसे में चाहे कितना भी रसूख वाला नेता क्यों ना हो, उससे पार्टी लाइन से इतर बोलने की उम्मीद नहीं जा सकती। लेकिन जब रामगोपाल यादव बोलें तो उनकी छवि के मुताबिक उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे नापतोल कर बोलेंगे। लेकिन राजनीति के चक्कर में वे भी फिसल गए। उत्तर प्रदेश में खनन माफिया के खिलाफ कार्रवाई करके चर्चा में आ चुकी आईएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागपाल और उनके निलंबन के समर्थन में बोलते वक्त रामगोपाल यादव उस संविधान को भी भूल गए, जिसकी शपथ वे सांसद बनने के बाद लेते रहे हैं। उन्होंने कह दिया कि केंद्र सरकार चाहे तो आईएएस अफसरों को वापस बुला ले। उत्तर प्रदेश बिना आईएएस अफसरों के ही काम चला लेगा।

सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय नौकरशाही को क्या कोई राज्य सरकार चाहे तो हटा सकती है और बिना केंद्रीय नौकरशाही के वह प्रशासन चला सकती है। इसका जवाब ना में है। संविधान की राज्य सूची के मुताबिक शासन चलाने के साथ ही कानून और व्यवस्था संबंधित राज्य की ही जिम्मेदारी है। लेकिन संविधान का अनुच्छेद 312 केंद्रीय नौकरशाही की व्यवस्था भी करता है। इसके मुताबिक राज्यों को केंद्रीय नौकरशाही जिन्हें हम आज आईएएस, आईपीएस, आईएफएस आदि के नाम से जानते हैं, को प्रशासन की जिम्मेदारी देनी ही होगी। संविधान का यह अनुच्छेद बताता है कि इन अधिकारियों की नियुक्ति, उनका प्रशिक्षण, अनुशासन पूरी तरह केंद्र के ही अधीन होगा। बेशक वे राज्य में नियुक्त किए जाएंगे। लेकिन संविधान इन अधिकारियों को मनमानी पदच्युति, स्थानांतरण, पदों के न्यूनीकरण यानी कम करने आदि से बचाव का अधिकार भी  देता है। दुर्गा शक्ति के निलंबन के बाद संविधान प्रदत्त ये अधिकार कम से कम नौकरशाही के बीच चर्चा में जरूर आ गए हैं। केंद्रीय सेवा नियमावली के मुताबिक केंद्रीय नौकरशाही के अफसर को संबंधित राज्य सरकार निलंबित तो कर सकती है। लेकिन 45 दिनों के भीतर केंद्र सरकार यानी कार्मिक मंत्रालय को उस निलंबन को मंजूरी देनी होगी। यानी आखिरी फैसला केंद्र सरकार पर ही होता है। सिविल सेवा नियमावली के मुताबिक केंद्रीय सेवा के अफसरों की बर्खास्तगी राज्य के हाथ में भी नहीं है। संविधान प्रदत्त यह अधिकार ही है कि केंद्रीय सेवा के अफसर अगर ईमानदार हुए तो अराजक और बेईमान राजनीतिक नेतृत्व के सामने नहीं झुकते। भले ही इसके लिए उन्हें तबादले का दंश झेलना पड़े। बहरहाल राज्यों के भ्रष्ट नेतृत्व ने इसकी भी काट खोज ली है। राज्यों में महत्वपूर्ण जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों के पदों पर वे राज्य नौकरशाही के अफसरों को ही ज्यादा तैनात कर रहे हैं। राज्य लोकसेवा आयोग से चयनित होने के चलते उनके खिलाफ अनुशासनिक कार्यवाही करने से लेकर बर्खास्तगी तक के अधिकार राज्यों के पास हैं। लिहाजा कमजोर और भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व इन दिनों राज्यों की नौकरशाही को ही मलाईदार पदों पर तैनात करने लगा है। क्योंकि उन पर उनका चाबुक चल सकता है। बेशक राज्य की नौकरशाही को भी मौके मिलने चाहिए। अगर राजनीतिक दल राज्यों की नौकरशाही पर भरोसा करती है और उन्हें मेरिट के आधार पर तैनाती देती है तो उसका स्वागत ही होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है। खासतौर पर क्षेत्रीय पार्टियों के शासित राज्यों में यह परिपाटी बढ़ रही है। दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन ने इस मसले पर भी तार्किक बहस का मौका जरूर दे दिया है। उत्तर प्रदेश सरकार अगर दुर्गा शक्ति नागपाल के मसले पर अड़ियल रूख अख्तियार कर रही है तो इसलिए क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 311 के मुताबिक किसी सिविल सेवा के अधिकारी का निलंबन ना तो उसके रैंक का कम किया जाना है और ना ही उसे कोई सजा है और ना ही बर्खास्तगी। जिसके लिए उसे अपनी बात रखने का मौका दिया जाय। लेकिन दुर्गा के मामले ने अगर तूल पकड़ा है तो इसलिए कि राज्य सरकार की मंशा कुछ और ही नजर आती है। विवाद मंशा को लेकर ही हो रहा है। लेकिन यह कहना कि बिना किसी केंद्रीय नौकरशाही के राज्य काम चला लेगा, यह या तो अनजाने में दिया गया बयान है या फिर बेवकूफी। क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 311 के मुताबिक राज्यों में प्रशासन की एकरूपता और संघीय ढांचे के तहत केंद्र का राज्यों पर सीमित नियंत्रण तय करने में केंद्रीय नौकरशाही की ही अहम भूमिका होती है। निश्चित तौर पर राज्य सरकारों को इसकी जानकारी होगी ही। फिर भी अगर उनके रहनुमा बयानबाजी करते हैं तो यह माना जाना चाहिए कि दरअसल ऐसे बयानों से वे अपने वोटर को ना सिर्फ आक्रामक बना रहे होते हैं, बल्कि उनका अहं भी तुष्ट कर रहे होते हैं।
दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन ने यह सवाल एक बार फिर खड़ा कर दिया है कि भारतीय नौकरशाही में ईमानदार अफसर अब भी हैं और उन्हें राजनीतिक नेतृत्व सही और निष्पक्ष तरीके से काम नहीं करने दे रहा है। यह उस नौकरशाही को लेकर अच्छी खबर बन सकती है, जिसके 2008 से 2011 के बीच 450 अफसरों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की जा चुकी हो और इसी अवधि में 943 अफसरों के खिलाफ सीबीआई की जांच चल रही हो। हॉंगकांग की पोलिटिकल एंड इकोनॉमिक कंसल्टेंसी ने 2012 में जारी अपनी रिपोर्ट भारतीय नौकरशाही को एशिया की भ्रष्टतम नौकरशाही घोषित किया था। इन्हें नियंत्रित करने वाले कार्मिक मंत्रालय की एक रिपोर्ट 2012 में जारी अपनी खुद की अध्ययन रिपोर्ट में माना है कि नौकरशाही में हर स्तर पर भ्रष्टाचार संस्थानिक हो चुका है। शायद यही वजह है कि 28 नवंबर 2011 को मंत्रालय ने 15 साल की सेवा के बाद अधिकारियों के कार्य की रिपोर्ट और उनके रिकॉर्ड को जांचने और उसे अनुपयुक्त पाए जाने पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति का प्रस्ताव पेश किया। जिसे लेकर नौकरशाही में हड़कंप मच गया। बहरहाल दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के बाद उभरे मसलों ने निश्चित तौर पर भारतीय नौकरशाही और राजनीति के रिश्तों को नए सिरे से सोचने और मंथन करने का मौका तो दिया ही है, नौकरशाही को लेकर जनता की उम्मीद को भी दिखाता है। नौकरशाही में बढ़ती उम्मीद ही है कि दुर्गा के निलंबन के खिलाफ लखनऊ से लेकर गाजियाबाद तक में प्रदर्शन होते हैं। उन्हें बहाल करने की मांग को लेकर समाज के हर तबके के लोग सामने आते हैं। बेहतर तो यह होता कि राजनीतिक नेतृत्व स्थानीयता के संकीर्ण मसलों से उपर उठकर व्यापक हित में फैसले लेता। जिसकी उम्मीद लोकसेवकों से गांधी जी ने लगा रखी थी। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीति खुद को बदलने को तैयार नहीं है। उलटा वह अधिनायकवादी प्रवृत्ति की तरफ बढ़ती नजर आ रही है। रामगोपाल यादव के बयान हों या उत्तर प्रदेश सरकार को चला रही राजनीति की कार्यशैली, इसी प्रवृत्ति को ही दिखा रहे हैं। ऐसे में भ्रष्ट नौकरशाही को ही प्रश्रय मिलता है। जनता के एक तबके को भी ईमानदार नौकरशाही के खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा मिलती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक नेतृत्व के शिखर पर रहने वाली राजनीति से ही इन प्रवृत्तियों में बदलाव की उम्मीद की जाती है। बेहतर तो यह होता कि राजनीति भी उल-जलूल बयानों की सरणी से बचने की कोशिश करती। तभी उसकी विश्वसनीयता कायम रहेगी। अन्यथा दुर्गा शक्ति जैसे आईएएस और जैसलमेर के पंकज चौधरी जैसे आईपीएस अफसरों में लोगों का भरोसा जिस तुलना में बढ़ेगा, राजनीति से उसी तुलना में घटेगा।



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