Sunday, August 23, 2015

लय में लौट आए पीएम



उमेश चतुर्वेदी
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री से उम्मीद लगा रखे लोगों को उनके भाषण में वैसी ताजगी और नई दिशा नजर नहीं आई, जैसा चुनाव अभियान से लेकर पिछले पंद्रह अगस्त तक उनके शब्दों में नजर आती रही। प्रचंड जनमत की आकांक्षाओं के रथ पर सवार होकर जिस तरह सत्ता के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी पहुंचे हैं, उसमें जनता की कसौटियों पर कसे जाने की चुनौतियां कुछ ज्यादा होनी ही थी और वह प्रधानमंत्री के सामने है भी। ऐसे में पंद्रह अगस्त के भाषण को लेकर उन पर टीका-टिप्पणी होनी ही थी। दस-पंद्रह साल पहले की बात होती तो इस टीका-टिप्पणी को देखने के लिए कुछ वक्त की दरकार होती। लेकिन फटाफट खबरों वाले खबरिया चैनलों की अनवरत कथित बहस यात्रा और प्रतिपल सक्रिय सोशल मीडिया के दौर में इससे बचाव कहां। अब तत्काल फैसले भी होने लगते हैं और उन पर टिप्पणियों की बौछार भी होने लगती है। जाहिर है कि पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को लेकर ऐसी टिप्पणियां शुरू भी हो गईं। तब सवाल यह उठने लगा कि प्रधानमंत्री अब चूकने लगे हैं। सवाल यह भी उठा कि अब तक अभियान के मूड में रही उनकी शैली से जनता का मोहभंग होने लगा है।
प्रधानमंत्री मोदी को हर कदम पर नाकाम देखने की उम्मीद लगाए बैठे उनके विरोधियों को लगने लगा कि वह घड़ी आ ही गई। दिलचस्प यह है कि ऐसी उम्मीदें उनके विपरीत वैचारिक ध्रुव पर बैठे लोगों के साथ ही उनके अपने ही दल में समय की धार के सामने निरूपाय चुपचाप रह रही शख्सियतें भी लगा रखी थीं। बेशक पंद्रह अगस्त के दिन राजनीति ना करने की नसीहतनुमा जानकारी देने के बाद मोदी के खिलाफ लगातार आक्रामक रूख रखे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आजादी की सालगिरह पर दिए प्रधानमंत्री के रस्मी भाषण पर टिप्पणी करने से मना कर दिया। लेकिन अगले ही दिन उनके प्रवक्ताओं की टीम ने यह कहना शुरू कर दिया कि प्रधानमंत्री अब चूकने लगे हैं। सवाल तो जनता दल यू के उस प्रवक्ता ने भी उठाने शुरू कर दिए, जो हाल के दिनों तक भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ गलबहियां डाले दिखते रहते थे। जी हां, यहां बात केसी त्यागी की हो रही है। लेकिन दो दिन बीते नहीं कि प्रधानमंत्री ने अपने विरोधियों की खुशी बने रहने नहीं दी। दुबई के क्रिकेट स्टेडियम में चालीस हजार लोगों के सामने अपने 75 मिनट के भाषण में उन्होंने जिस तरह लोगों का दिल जीता, उससे एक बार फिर अमेरिका में न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर पर हुए भाषण की याद ताजा कर दी। बुत परस्ती के विरोधी देश की सरजमीन पर भारत माता की जय बोलकर जिस तरह प्रधानमंत्री ने हर उस मुद्दे को छुआ, जो भारतीय गौरव गाथा की बखान करता है, उससे अमीरात में बैठे हजारों भारतीय तो खुश हुए ही, भारत में भी उनके चहेतों को लगा कि उन्होंने अपनी लय नहीं खोई है। उनकी लय बरकरार है। हालांकि आलोचना करने वाले यह कहने से नहीं चूक रहे कि दुबई में लोगों के बीच सवा घंटे का लंबा भाषण नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर वहां मौजूद चालीस हजार लोग भाषण सुनने के लिए टिके क्यों रहे। उनका टिकना ही साबित करता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी लय पर अपना काबू बरकरार रखा है..

नरेंद्र मोदी जिस भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं, उसके बारे में माना जाता है कि वह मुस्लिम विरोधी है। मोदी ने कुछ साल पहले गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मुस्लिम टोपी पहनने से इनकार कर दिया था तो उनकी बड़ी लानत-मलामत हुई थी। तब उन्हें धर्मनिरपेक्षता की महान परंपरा के भंजक के तौर पर दिखाया गया था। लेकिन उसी मोदी ने एक मुस्लिम देश की धरती पर जिस तरह ना सिर्फ अपने लोगों के बीच नया संदेश दिया, उससे चकित ही रहा जा सकता है। अमीरात की धरती पर जायेद मस्जिद की यात्रा करना और वहां स्वामीनारायण मंदिर की स्थापना के लिए मंजूरी हासिल करना मामूली बात नहीं है। इससे भी बड़ी बात यह है कि संयुक्त अरब अमीरात से देश में साढ़े चार लाख करोड़ के निवेश का वायदा हासिल कर लेना भी सहज उपलब्धि नहीं है। जाहिर है कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर देश को तेजी से आगे बढ़ाने का सपना देखने और अपने वोटरों को दिखाने वाले मोदी को इस वायदे से खुशी होनी ही थी। जाहिर है कि दुबई क्रिकेट स्टेडियम के मोदी के भाषण में आत्मविश्वास भरने का काम अमीरात से मिले इस बड़े निवेश वायदे ने भी दिया है। देश में खाड़ी के देशों से काफी रकम आती है। वहां काम कर रहे प्रवासी अपने घरों में पेट्रो डॉलर भेज कर भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार को भरने में खासी मदद करते हैं। केरल जैसे राज्य की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा इस पेट्रो डॉलर पर ही निर्भर करता है। निश्चित तौर पर अरब देशों में हर वर्ग के भारतीय काम करते हैं, लेकिन उनमें मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या अच्छी खासी है। दुबई क्रिकेट स्टेडियम के भाषण में हर वर्ग के लोग जुटे, लेकिन जाहिरा तौर पर इनमें ज्यादा संख्या मुस्लिम लोगों की ही थी। जाहिर है कि वे अपने घरों में भी इस खुशी को फोन और इंटरनेट के जरिए बांटेंगे। निश्चित तौर पर इसका असर कम से कम भारतीय जनता पार्टी के लिए सकारात्मक ही होगा। यानी इस एक कदम से मोदी ने राजनीतिक मोर्चे पर बड़ा सियासी मकसद हासिल करने की दिशा में बड़ा कदम बढ़ा दिया है।
अमीरात की यात्रा से लौटने के ठीक अगले दिन बिहार के पहले आरा और फिर सहरसा में जिस तरह मोदी ने भाषण दिया, उसने भी साफ कर दिया है कि मोदी अभी चूके नहीं हैं। दोनों भाषणों ने साबित किया है कि राजनीतिक रणनीति बनाने और उसे सही वक्त पर लागू करने का नजरिया मोदी ने खोया नहीं है। आरा में उन्होंने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के विशेष पैकेज का ऐलान किया। हालांकि आरा का कार्यक्रम पूरी तरह सरकारी था। उस मंच से नीतीश कुमार पर हमला बोलने से उन्हें बचना चाहिए था। लेकिन ऐसा करने से मोदी खुद को रोक नहीं पाए। मोदी कोसी के बाढ़ के वक्त गुजरात की सहायता वापस भेजने और पटना में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान भोज का ऐलान करने के बाद उसे वापस लेने के नीतीश के फैसले और उससे उपजे अपमान को भुला नहीं पाए हैं। शायद यही वजह रही कि उन्होंने नीतीश कुमार पर हमला बोलने से परहेज नहीं किया। उनके प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनते ही नीतीश ने जिस तरह भारतीय जनता पार्टी से 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया, उसकी पीड़ा भी मोदी भुला नहीं पाए हैं। शायद यही वजह है कि अब उनका पूरा जोर बिहार पर एनडीए का कब्जा जमाने पर है। उन्हें पता है कि नीतीश पर ऐसे हमले उनके वोटरों को पसंद आते हैं। लिहाजा वे सरकारी और गैर सरकारी मंचों की पवित्रता की पारंपरिक सियासी अवधारणाओं को तोड़ने से नहीं हिचक रहे।
राजनीति जितना तात्कालिकता का खेल है, उतना ही दीर्घकालिक फायदे हासिल करने की चुनौतीपूर्ण कला भी है। तात्कालिकता को ध्यान में रख कर उठाए गए कदमों से राजनेता को फौरी फायदा भले ही मिल जाए, लेकिन इसके जरिए मिली कामयाबी अल्पजीवी ही होती है। लेकिन दीर्घकालिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर जुबान खोलने और सियासी कदम उठाने वाले राजनेता को अगर उसके कदमों का सियासी फायदा मिलता है तो आने वाले वक्त में वह स्टेट्समैन यानी युग परिवर्तक शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है। मोदी के मौजूदा कदम और भाषणों का निश्चित तौर पर तात्कालिक सियासी लाभ उठाना बड़ा मकसद है। लेकिन जिस तरह वे अपनी रणनीति को वक्त और स्थान को चुनकर जनता के बीच उछालते हैं, उससे लगता है कि कहीं न कहीं उनके मन में उन्हें स्टेट्समैन के तौर पर याद किए जाने की चाहत छुपी हुई है। हाल के भाषणों और कदमों का संकेत तो यही कहता है।

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