Thursday, April 23, 2009

ऐतिहासिक मंदी से जूझ रहा जर्मनी

अंजनी राय
जर्मन चांसलर श्रीमती अंगेला मर्केल ने बुधवार को अपने दफ़्तर में आर्थिक शिखर सम्मेलन की मेजबानी की.सरकार ने इस बात को स्वीकार किया कि यूरोप की अर्थव्यवस्था नाटकीय ढंग से सिकुड़ रही है.जर्मन वित्त मंत्री पीर इस्तैन्ब्रुक ने कहा की हम वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी की दौर से गुजर रहे हैं और पहली तिमाही में 3.3 प्रतिशत तक गिरने की उमीद है.ज्ञात हो की इस वर्ष की पहली तिमाही के लिए सरकारी आंकड़े 15 मई तक प्रकाशित नहीं हो रहे हैं.इस भयावह आंकड़े 2008 की चौथी तिमाही में और 2009 की पहली तिमाही दोनों को देखते हुए इस्तैन्ब्रुक ने कहा कि इस वर्ष की पूरी अर्थव्यवस्था पाँच प्रतिशत तक जा सकती है. "एक पांच से पहले दशमलव बिंदु की संभावना कम की नहीं है,". इस्तैन्ब्रुक की टिप्पणी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी उस पूर्वानुमान को सही ठहराती है कि 2009 की जर्मनी की अर्थव्यवस्था 5.6 प्रतिशत तक जा सकती है.
29 अप्रैल को बर्लिन में 2009 के लिए नये आर्थिक अनुमानों का विवरण जारी होगा; पहले से ही यह तेजी 2.25 प्रतिशत के अपने मौजूदा अनुमान को संशोधित करने का संकेत दिया है. पर ये भी जर्मनी के आधुनिक इतिहास में सबसे बड़ी मंदी होगी.उस दौरान सम्मेलन में संघ और व्यापार अधिकारियों के साथ आर्थिक शिखर सम्मेलन के बाद बोलते हुए आर्थिक मंत्री कार्ल- थिएओदोर जू गुत्तेंबेर्ग ने कहा: "मुझे लगता है कि हम सब इस बात से सहमत है की हमारे आगे एक बहुत ही मुश्किल साल है."
ज्ञात हो की श्रीमती मेर्केल ने यह शिखर सम्मेलन बुधवार को कारोबार और व्यापार संघ के नेताओं के साथ बैठक के लिए बुलाई थी की उरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को कैसे वापस पटरी पर लाया जाये.
करीब 40 उद्योगपतियों ने जर्मनी के दो आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज के प्रभाव का विश्लेषण किया जो करीब 80 बिलियन है - हालांकि अभी ऐसे तीसरे पैकेज की कोई योजना नहीं है.
मर्केल ने शिखर सम्मेलन के बाद संवाददाताओं से कहा कि"आज यह बहुत स्पष्ट था कि हम एक तीसरे प्रोत्साहन पैकेज के बारे में, (जो उपाय है कि वे आगे विकसित किया जाना चाहिए कुछ क्षेत्रों में,)" काम कर रहे हैं, उस पर बात नहीं होनी चाहिए. "दूसरा प्रोत्साहन पैकेज ने हमें आगे सही दिशा में काम करने के साधन दिए हैं, और हमारी कोशिश होगी कि इसका प्रभाव सही दिशा में दिखे.
बर्लिन में उच्चस्तरीय बैठक भी बुलाई गयी है, जिसमें सरकार और व्यापारी समुदाय और ट्रेड यूनियनों के बीच बेहतर तालमेल और इस आर्थिक संकट में जर्मनी की प्रतिक्रिया में सुधार लाने की विषयों पर चर्चा होगी .
लेकिन यह तय है की ये आर्थिक मंदी आने वाले चुनाव में मुख्या मुदा होगा और शायद यह श्रीमती मेर्केल के दुबारे सरकार बनाने के सपने पे पानी फेर सकता है। अब तक, एक सरकारी योजना के तहत कंपनियां कर्मचारियों की छंटनी तो नहीं कर रही हैं लेकिन उनके काम के घंटे कम किये जा रहे हैं, मसलन जैसे आमतौर पर लोग हफ्ते में 40 घंटे यहाँ काम करते हैं, वे अब 25-30 घंटे करेंगे, लेकिन जैसे हालत दिख रहे हैं, उसके हिसाब से ये योजना ज्यादा दिन तक नहीं कारगर साबित हो पायेगी और जल्द ही छंटनी शुरु होगी.
हालांकि जर्मन ट्रेड यूनियन के शीर्ष नेता माइकल सोम्मर ने कहा है कि अगर छंटनी बड़े तौर पर शुरु होगी तो इसे हम एक आम आदमी के खिलाफ युद्ध के रूप लेंगे, जिसका नतीजा बहुत गहरा होगा और उसके लिए सरकार जिम्मेदार होगी। इतना ही नहीं, अशांति से इंकार नहीं किया जा सकता है!

Sunday, April 19, 2009

सियासी ड्राइंगरूम के गुलदस्ते

उमेश चतुर्वेदी
चुनावी माहौल में इन दिनों नेता बने अभिनेता बेहद चर्चा में हैं। दोनों हिंदी फिल्मों के नामी-गिरामी सितारे हैं। दोनों का नाम उस फिल्म की सफलता की गारंटी होती है। लेकिन दोनों अपनी इस फिल्मी लोकप्रियता को सियासी मैदान में भुनाने के लिए मैदान में नहीं उतर सके। इनमें से एक को जहां सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी तो दूसरे को उसकी पार्टी ने ही इस काबिल नहीं समझा। जी हां, ठीक फरमाया। यहां चर्चा संजय दत्त और गोविंदा की हो रही है।

चुनाव लड़ने और ना लड़ने की खींचतान के बीच एक सवाल पूरी तरह से गायब है। वह सवाल है कि इन राजनेताओं की क्या कोई सियासी वकत भी है, जनता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी है या फिर ये राजनीति के ड्राइंग रूम में सजाने के लिए सिर्फ गुलदस्ते की ही भूमिका निभाते हैं। गोविंदा की मुंबई के कांग्रेसी मैदान से विदाई से साफ है कि फिल्मी पर्दे पर ये राजनेता जनता की चाहे जितनी सेवा कर लें, जनता के हकों की लड़ाई चाहे जितनी कामयाबी से लड़ लें – लेकिन अगर उनमें सचमुच जनता की सेवा करने का जज्बा नहीं है तो सियासी मैदान में उनकी उपयोगिता खत्म हो जाती है और संसद में एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी पार्टियां उन्हें चुनावी मैदान से निकाल बाहर करने में भी देर नहीं लगातीं। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, ये हालत राष्ट्रवाद के मुद्दे को जिंदा रखने वाली बीजेपी और डॉक्टर लोहिया और नरेंद्रदेव की चिंता करने वाली समाजवादी पार्टी सबके साथ है। डॉक्टर लोहिया के चेले मुलायम सिंह को तो जहां भी थोड़ी उम्मीद दिखती है, वहां उनके पास फिल्मी मैदान से उतारने के लिए एक नेता मिल जाता है। जयाप्रदा, जया बच्चन, संजय दत्त और राजबब्बर के अलावा उसे कोई दिखता ही नहीं है। ये बात और ही राजबब्बर आजकल कांग्रेस की बहियां थाम बैठे हैं। वैसे राजबब्बर सियासी अभिनेताओं से कुछ अलग जरूर हैं। उन्होंने समाजवादी युवजन सभा से छात्र राजनीति शुरू की थी। पुलिस की लाठियां भी खाईं थीं। लेकिन जया बच्चन हों या जया प्रदा या फिर संजय दत्त...उनका ऐसा क्या इतिहास रहा है।

1984 के आम चुनावों में राजीव गांधी ने कुछ वैसे ही अभिनेता-अभिनेत्रियों पर भरोसा जताया था, जैसे आज अमर सिंह कर रहे हैं। तब इलाहाबाद से अमिताभ बच्चन, चेन्नई से बैजयंती माला और ऐसे ही ना जाने कितने रजत पटी चेहरे मैदान में उतार दिए गए। उनकी फिल्मी लोकप्रियता बैलेट बॉक्स में भी जमकर बरसी और वे देश की सबसे बड़ी पंचायत में जा पहुंचे। लेकिन वहां उनका प्रदर्शन कैसा रहा, ये संसद की कार्यवाही के इतिहास में दर्ज है। अमिताभ को तो जल्द ही मैदान छोड़ना पड़ा और बैजयंती माला बाली भी राजनीति को बॉय-बॉय बोल चुकी हैं। गोविंदा उसी की अगली कड़ी हैं। 2004 के आम चुनावों में उन्होंने राम नाइक जैसे कद्दावर नेता को हरा तो दिया – लेकिन जनता से उनका वैसा संवाद नहीं बना, जैसी की उनसे बतौर एक राजनेता और सांसद अपेक्षा पाली गई थी। अकेले कांग्रेस की ही ये कहानी नहीं है। बीजेपी ने भी अपनी स्टार प्रचारक हेमा मालिनी के पति धर्मेंद्र को बीकानेर की सीट से दिल्ली के दरबार में दाखिल करा दिया- लेकिन जिस जनता के वोटों से जीतकर वे संसद की सपनीली पंचायत में पहुंचे, उसके प्रति वे अपना कोई फर्ज नहीं निभा सके। परिणाम ये हुआ कि उनके वोटरों को धर्मेंद्र के लापता होने का पोस्टर लगाना पड़ा।

ये सच है कि आज के दौर में बहुत सारे राजनेता ऐसे हैं – जो अपनी जनप्रतिबद्धता को सही तरीके से निभा नहीं पा रहे हैं। उन पर पैसाखोरी और अंधाधुंध कमाई के साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। उनकी तुलना में अभिनेता-अभिनेत्रियों की एक सामाजिक छवि होती है। फिल्मी पर्दे पर वे जनता की लड़ाई करते हुए दिखते-दिखाते कम से कम औसत मतदाताओं में उनकी ये सामाजिक छवि विकसित होती है। यही वजह है कि आम लोग टूट कर उन्हें वोट देते हैं। लेकिन जब यही अभिनेता उसकी समस्याओं को दूर कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, उसे लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताता तो जनता उसके लापता होने का पोस्टर लगाने लगती है। फिर जो पार्टी उसे धूमधाम से संसद में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए टिकट देकर जिता कर लाई होती है – वही उससे किनारा करने लगती है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी उस जनता को होती है, जो बड़े अरमानों के साथ उस नेता को जिता कर संसद के गलियारे में भेजती है। पार्टी भले ही बाद में उसका टिकट काट दे – लेकिन नुकसान उस जनता को ही भुगतना पड़ता है, जिसने अपना कीमती वोट उस राजनेता बने अभिनेता को दिया होता है। उसका पांच साल बरबाद हो जाता है। डॉक्टर लोहिया कहते थे कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं कर सकतीं – लेकिन मजबूरी देखिए कि इस जिंदा कौम को पूरी सजगता के बावजूद पांच साल तक अपनी बदहाली दूर कराने , अपनी समस्याएं निबटवाने वाले राजनेताओं की खोज के लिए पांच साल तक इंतजार करना पड़ता है।

ऐसे में ये कहा जाय कि सियासी स्वार्थ के लिए पार्टियां ऐसे अभिनेताओं को अपने साथ लेकर आती हैं, उन्हें जिताती भी हैं। लेकिन उनकी भूमिका राजनीति के ड्राइंग रूम में सजे गुलदस्ते से ज्यादा की नहीं होती। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि सियासी ड्राइंगरूम में इन अभिनेताओं को गुलदस्ते की तरह सजाने की जरूरत क्या है। क्या संसद के गलियारे में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए जनता के प्रति जवाबदेही को पांच साल तक स्थगित रखा जाना चाहिए। अभी तक तो जनता ये सवाल नहीं पूछ रही है। लेकिन देर-सवेर राजनीतिक पार्टियों से ये सवाल पूछे जाएंगे। तब शायद कोई मुन्नाभाई या विरार का छोकरा महज गुलदस्ता बनने राजनीति के आंगन में नहीं उतरेगा। लेकिन इससे वे पार्टियां भी अपनी सामाजिक भूमिका से बच नहीं सकतीं, जिनके हाथ इन गुलदस्तों को सजाने के लिए आगे बढ़ते रहे हैं।

Sunday, April 5, 2009

मुन्नाभाई से नहीं, लोकतंत्र से हुआ इंसाफ


राजकुमार पांडेय
संजय दत्त को चुनाव लड़ने से रोक कर न्यायपालिका ने अपना काम बेहतर तरीके से निभाया है। न्यायपालिका ने इस तरह से साफ संदेश दे दिया है कि वो किसी को भी बख्शने वाली नहीं है। चाहे उसका पारिवारिक बैकग्राउंड कितना भी देशभक्ति वाला हो। न्यायपालिका के इस फैसले के बाद अब व्यवस्थापिका और उसके नुमाइंदों को सोचना होगा। हमारे देश के कानून ऐसे हैं जिसके तहत संजय दत्त को तो चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है, लेकिन दाऊद भाई अगर भारत के जेल में बंद भी हो तो उनको कोई चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता। अबू सलेम छोटा राजन या फिर और दूसरे तमाम अपराधी चाहे जितना राष्ट्र विरोधी काम कर रहे हों उन्हें तब तक चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता, जब तक कि उन पर मुकदमा चला कर उन्हें सज़ा न दे दी जाय। शाहबुद्दीन को चुनाव लड़ने से कोर्ट ने रोका तो उन्होंने अपनी पत्नी को मैदान में उतार दिया। और तो और लालू प्रसाद यादव बाकायदा उनके प्रचार में भी लगे हुए हैं।
नाम फौरी तौर पर एक समुदाय विशेष से आ रहे हैं इसका कत्तई ये मतलब नहीं निकालना चाहिए कि सिर्फ उसी समुदाय के लोग ही अपराधी है। दरअसल ऐसे तमाम हिंदू अपराधी हैं जो जरायम की अपनी दुकान के साथ साइ़ड बिजनेस के रूप में राजनीति का धंधा भी चला रहे हैं। उन्हें चुनाव लड़ने बिल्कुल नहीं रोका जा सकता। बल्कि राजनीतिक दल भी उन्हें चुनाव में उतार कर अपनी एक सीट पक्की कर लेते हैं। जनता से अपेक्षा की जाती है कि उनके बीच कोई भगत सिंह पैदा हों और वे ही इन गुंडे और बदमाशों को वोट न दे।
जब बात जनता की चली तो इसे भी समझ लेना जरूरी है कि जनता क्यों इस तरह के लोगों को वोट दे देती है। ग़ाज़ीपुर इलाके से मुख्तार अंसारी जनप्रतिनिधि रहे। अब वहां किसी के भी घर में शादी व्याह हो, या किसी दूसरे मौके पर बिजली की जरूरत होती थी तो बिजली नहीं कटती थी। वजह ये थी कि मुख्तार भाई सीधे इंजीनियरों को फोन कर देते थे, फला तारीख को इतने से इतने बजे तक बिजली नहीं जानी चाहिए। किसकी मजाल कि भाई का हुक्म टाल दे। किसी को पानी के टैंकर की जरूरत पड़ती थी तो भी भाई का हाथ उसके साथ होता था। आम आदमी को इससे ज्यादा की जरूरत नहीं और दूसरी तबीयत वालों के तो भाई लोग मसीहा हैं ही। फिर साधारण आदमी से ले कर असाधारण बदमाश तक को मुख्तार भाई का नेतृत्व शूट करता है।
अब नेताजी की बात कर लें। नेता जी नेता बनने से पहले किसी तरह दो जून रोटी का जुगाड़ करते थे। अब वे पांच तारा सुविधाओं के हक़दार हो गए हैं। उनका क्लास बदल गया है। उन्हें किसी भी आम आदमी से बात करने की फुर्सत नहीं। अगर वे मंत्री हो गए तो फिर कमीशन के दलालों के साथ मीटिंग करने से उन्हें फुर्सत ही कहां हैं जो वे किसी साधारण आदमी की बेटी की शादी में एक टैंकर दिला सकें। या फिर किसके घर फेरे अंधेरे में हो रहे हैं, इसकी जानकारी भी वो ले पाएं।
तो इस हालत में किसी आम आदमी को जरूरत क्या है कि उसे मुख्तार भाई या शाहबुद्दीन की जगह छात्र संघ में उत्पात मचा कर राजनीति में आए किसी व्यक्ति को वोट दे।
फिर भी ऐसा नहीं कि देश में अब संजीदा राजनीतिज्ञ न रह गए हों। हैं तभी तो जो भी सही व्यवस्था चल रही है। उन्ही संजीदा लोगों को सोचने की जरूरत है कि अपराधियों को किस तरह से चुनाव में उतरने से रोका जा सके। संजय दत्त चुनाव लड़ें या न लड़े इससे देश को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। अलबत्ता इस फैसले के जरिए जो संदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था, उसे समझने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट भी मुख्तार और अतीक जैसे या फिर काल्पनिक हालात में जाएं तो दाऊद भाई जैसों को फिलहाल तो चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता। इन्हें रोकने के लिए नए सिरे से कानून बनाने होंगे। वो भी कानून ऐसे हों जिनका किसी भी तरह से दुरुपयोग न हो सके। क्योंकि आज कोई भी कानून बनने के पहले ही उसके दुरूपयोग के रास्ते खोजे जाने लगते हैं। पहले भी कानून बनाने वालों ने ऐसा ही भोलापन किया। उन्हें अंदेशा कम ही था कि आने वाले वक्त में राजनीति और समाज की ये दशा होगी। उन्हें इसका इल्म नहीं हो पाया था कि कोई राज्यपाल भी अपने पद का किस हद तक दुरुपयोग कर सकेगा। भाई महावीर से ले कर रमेश भंडारी और भी बहुत से कांग्रेसी राज्यपालों ने इसके नए रिकॉर्ड बनाए। सबब ये है कि अब बहुत सोच समझ कर उन कानूनों को बनाने का वक्त आ गया है कि दागदार लोग लोकतंत्र के यज्ञ से दूर रहे और इसकी पवित्रता बरकरार रहे।

Monday, March 30, 2009

ख्याल रहे कि,रोशनी में कुछ घर भी जल रहे हैं

अंजनी राय हैं तो वैसे एमबीए पास, लेकिन प्रबंधन का काम मीडिया हाउसों में करते रहे हैं। फिलहाल जर्मनी में हैं और वहीं से उन्होंने भारत में जारी मौजूदा चुनावों को लेकर अपनी प्रतिक्रिया भेजी है। पेश है उनका नजरिया-
चुनाव आयोग की ओर से तारीखों की घोषणा के साथ ही पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव पूरे शबाब पर हैं.... सभी पार्टियां अपने झंडे और डंडे लेकर मैदान में उतर गई हैं। चुनावी समर में जीत हर हाल में जरुरी हैं ... और जनता को रिझाने का कोई भी मौका नेता छोड़ना नहीं चाहते..... चुनाव आचार संहिता को ताक पर रखकर कहीं वादों की पोटली खोली जा रही है... तो कहीं भड़काऊं भाषण दिए जा रहे है..... नोट के जरिए वोट बटोरने वालों की भी यहां कोई कमी नहीं...... कोई नजराने के नाम पर पैसा लुटा रहा है... तो कोई त्यौहार और परंपराओं की दुहाई देकर लोगों की जेब मोटी कर रहा है......... मसकद साफ है..... लोकतंत्र के महापर्व में किसी भी तरह जनता का प्रसाद हासिल करना........ लेकिन एक बात चौंकाने वाली है कि किसी भी पार्टी ने अब तक उस मुद्दे को उतनी मजबूती से नहीं उठाया है जिसमें पूरी दुनिया पीस रही है.....यही नहीं इसकी भयावहता के छिंटे भारत पर भी पड़े हैं...... मुद्दा है आर्थिक मंदी का........ जिसने पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में ले लिया है..... लेकिन हैरानी की बात कि इसमें कोई भी पार्टी अपना हाथ नहीं डालना चाहती........

आर्थिक मंदी के दुष्परिणाम अमेरिका और युरोपीय देशों में साफ देखा जा सकता है....... जर्मनी जैसे विकसित देश में कई संस्थाओं में देखते ही देखते ताले लग गये.... लाखों लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा.......ये तो बात रही विकसित देशों की...... भारत जैसे विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों का तो और भी बुरा हाल है...... बावजूद इसके यहां कोई भी राजनैतिक दल सच्चाई से रू-ब-रू होना नही चाहता........ ज्यादा दुःख तो तब होता है जब नेता सदन की सीढ़ीयां चढ़ने के लिए समाज में जातिगत विद्वेष और मजहबी उन्माद का बीज बोते हैं.......
वरुण गांधी के मसले को ही ले लें..... हजारों लोगों के बीच कुछ उतेजक बयान ने..... अचानक वरुण को एक वर्ग विशेष को लोगों के बीच हीरो बना दिया है..... वरुण के मुंह ने निकले चंद जहरीले शब्द समाज में किस तरह का जहर घोल सकते हैं इस बात कि किसी को परवाह नहीं...... बीजेपी जहां वरुण के सहारे यूपी में खोते जा रहे अपने हिंदुत्व वोट को फिर से तुनीर में डालने की कोशिश कर रही हैं वहीं कांग्रेस को चिंता है कि अक्रामक वरुण कहीं अपने तीखे तेवर से उनके युवराज राहुल को हाशिये पर न धकेल दे........ सो कांग्रेस वरुण को साम्प्रदायिक ठहराने पर तुली हुई है..... इस बात की चिंता किए बगैर की कई राज्यों में उसने ऐसे दलों से गठबंधन करने में गुरेज नहीं किया है जो अल्पसंख्यक हितों के नाम पर ही सही एक सम्प्रदाय विशेष की बात करने में कभी नहीं गुरेज करते.......सवाल है कि राजनीतिक दलों को समुह विशेष की चिंता चुनाव के वक्त ही क्यों होता है..... क्या वे इस तरह की राजनीति कर एक धर्मनिरपेक्ष देश की आत्मा को तार तार नहीं कर रहे हैं..........

मकसद साफ है ये कर्मयुद्द है और इसमे जीत के लिए धर्म और इंसानियत की बलि भी देनी पड़े तो राजनेताओं को इसका कोई परवाह नहीं..........कभी कभी तो हंसी आती है इन खदरधारियों की कुर्सी के प्रति आसक्ति को सुनकर........ पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस अपने उम्र के आखिरी पड़ाव पर है..... शरीर साथ नहीं दे रहा है बावजूद इसके चुनाव लड़ने से गुरेज नहीं है.... खुद को तो संभाल नहीं पा रहे हैं चुनाव जीतकर वे कौन सा देश को संभाल लेंगे.......

इस वेब पोर्टल के माध्यम से हमारा सभी राजनीतिक दलों से अनुरोध हैं कि आपसी रंजिश भुलकर सभी दल देश के बारे में सोचें.......... एक अरब दस करोड़ आंखों में आपसे कई उम्मीदे हैं.........

खूब जोर से पटाखे जलाओ यारो
बस इतना ख्याल रहे कि
रोशनी में कुछ घर भी जल रहे हैं

Thursday, March 26, 2009

एडमिशन का चक्कर

अब एक ऐसे लेख की चर्चा, जिसे कई अखबारों में छपने के लिए भेजा गया, लेकिन ये रचना या तो संपादक जी लोगों को पसंद ही नहीं आई या फिर छपने लायक ही नहीं रही। अब आपकी अदालत में है कि ये छपने लायक है भी या नहीं - उमेश चतुर्वेदी
एडमिशन कराना इतना भी कठिन होगा ...ये मुझे तब पता चला- जब मेरी बेटी स्कूल जाने लायक हो गई। मशहूर शिक्षाविद् कृष्ण कुमार और प्रोफेसर यशपाल के लेखों को पढ़ते – गुनते रहे मेरे मन ने ठान लिया था कि मुझे शहराती जिंदगी की धारा में नहीं बहना है। यानी खेलने-कूदने की उम्र में अपने बच्चों को स्कूल का रूख करने के लिए मजबूर नहीं करना है। लेकिन दुनियादारी और समाज के दबाव ने ऐसा कर दिया कि मेरी सारी पढ़ाई- गुनाई धरी की धरी रह गई। रही-सही कसर पूरी कर दी श्रीमती जी की ओर रोजाना आसपड़ोस की महिलाओं के उछाले जाते रहे सवालों ने...हर किसी का दावा होता था कि उनके बेटे का एडमिशन डी अक्षर से शुरू होने वाले एक जाने – माने स्कूल में ही होगा। उन्होंने सारी जोड़जुगत लगा रखी है।
बहरहाल दबाव में हमने भी उसी स्कूल में आवेदन फॉर्म डाल दिया। ऐसा किए महीनों बीत गए। उनकी शर्तों के मुताबिक हम पति-पत्नी भी काफी पढ़े-लिखे थे। लेकिन बुलावा नहीं आना था – सो नहीं आया। महानगर में बनते होंगे लोग बड़े पत्रकार और लेखक ...डी अक्षर वाले उस स्कूल ने कम से कम मुझे तो इतना रसूखदार तो माना ही नहीं। ऐसे में गांव के बोरा-टाट वाले स्कूल में नंगे पांव जाकर पढ़ाई कर चुका मेरा मन थोड़ा निराश जरूर हुआ। फिर हमने दक्षिण दिल्ली के बी अक्षर से शुरू होने वाले एक स्कूल में आवेदन डाला। वहां से बुलावा तो आया – लेकिन बच्चे और हमारे इंटरव्यू का। बच्चे का अलग से इंटरव्यू और हमारा अलग। बच्चे से पता नहीं क्या पूछा , अलबत्ता हमसे अंग्रेजी में जरूर पूछा गया तो आप क्या काम करते हैं। जिंदगी में सैकड़ों इंटरव्यू ले चुके मुझ जैसे शख्स के पसीने छूटते नजर आए। मैंने अपना काम बताया – लेकिन शायद इंटरव्यू लेने वाली मैडम के पल्ले ही नहीं पड़ा या फिर कुछ और ...उन्होंने एक बार फिर वही सवाल दागा। मैंने फिर समझाया कि मैडम हम लिखने-पढ़ने का काम करते हैं। खबर लाते हैं और उसे छापते हैं। पता नहीं मैडम को फिर समझ में नहीं आया या फिर हम उन्हें समझा ही नहीं पाए और हमें थैंक्स बोल दिया गया। बोलने का लहजा इतना चाशनी में पका था कि लगा कि हम तो सफल रहे। लेकिन जब रिजल्ट आया था तो हमारे बच्चे का नाम लिस्ट से वैसे ही गायब था – जैसे गदहे के सिर से सींग।
स्कूल-स्कूल धूल फांकने के बाद हमारा बच्चा भी एक ठीकठाक स्कूल में जगह पाने में कामयाब रहा। लेकिन इसके लिए हमें अपनी कितनी नींद गंवानी पड़ी और कितना चैन खोना पड़ा – इसका कोई मोल नहीं है।
एक बार फिर स्कूलों में एडमिशन का चक्कर शुरू हो गया है और हमारे ही तरह लोग अपने मासूम नौनिहालों के एडमिशन के चक्कर में चक्कर पर चक्कर लगाने को मजबूर हो गए हैं। बहरहाल हर साल जब एडमिशन का ये चक्कर शुरू होता है तो मेरे सामने एक सवाल बार-बार उठ खड़ा होता है। क्या जिसके मां-बाप पढ़े – लिखे ना हों तो उसे पढ़ने का हक नहीं होना चाहिए। अगर सृष्टि में शुरू से ही ऐसा नियम होता तो क्या होता। जीव विज्ञानी कहते हैं कि हम बंदरों की संतान हैं। आज के पब्लिक स्कूलों का नियम शुरू से ही होता तो क्या हम आज चांद पर पहुंचने में कामयाब होते ...बंदरों से आदमी बनते हुए इंसान तक की हम यात्रा पूरी कर पाते ...इस सवाल का जवाब हर शहरी – देहाती ढूंढ़ना चाहता है। लेकिन वह अवश है और जिस सरकार को इसका जवाब तलाशना चाहिए ..उसे इसके लिए फुर्सत ही नहीं है।

Wednesday, March 4, 2009

गांव पहुंचे सरकार, पर कितना बदला बिहार



उमेश चतुर्वेदी

बेगूसराय जिले के बरबीघी गांव में नीतीश कैबिनेट की बैठक ने देशभर में एक नया संदेश दिया है। हकीकत में ऐसा पहली बार हुआ है कि सरकार सचमुच गांव पहुंची है। अब तक सिर्फ सरकार के गांव पहुंचने का दावा ही किया जाता रहा है। नीतीश सरकार ने अब तक दावा तो नहीं किया है कि गांव में पहुंचकर उनकी सरकार ने गांधी जी के सपनों को साकार करने की दिशा में ठोस कदम उठाया है। लेकिन ये भी सच है कि देर-सवेर ऐसा होना शुरू हो ही जाएगा। नीतीश कुमार ने बीती दस फरवरी को राजधानी पटना से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर स्थित बरबीघी में पूरी कैबिनेट को उतार कर एक नई परंपरा की नींव डाल दी है।
पता नहीं मंत्री हलकान हुए या नहीं ..लेकिन नीतीश कुमार के इस कदम से अफसर जरूर हलकान हैं। वे कुछ वैसे ही परेशान हैं, जैसे नायक फिल्म में एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बने अनिल कपूर के त्वरित फैसले से अधिकारी परेशान नजर आए थे। परेशान नीतीश कुमार के विरोधी भी नजर आ रहे हैं। लोकसभा चुनावों की दस्तक के बीच नीतीश के इस कदम से सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड के नेताओं और कार्यकर्ताओं में उत्साह नजर आ रहा है। लेकिन ये कहना पूरा सच नहीं होगा। बिहार जनता दल के कई नेता ऐसे भी हैं, जो नीतीश कुमार के शुभचिंतक हैं। दिल और पार्टियां टूटने के लिए मशहूर जनता दल यू के इन नेताओं को नीतीश की अगुआई से कोई शिकवा भी नहीं है। लेकिन उनके गांव-गांव पहुंचने और आम लोगों के सामने ही अफसरों की खिंचाई के नजारों से वे संतुष्ट नहीं हैं।
याद कीजिए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का पिछला कार्यकाल। जहां भी जातीं, वहां के अफसरों की मानो शामत ही आ जाती। सड़क निर्माण में धांधली उन्हें नजर आई नहीं कि सार्वजनिक निर्माण विभाग के तमाम इंजीनियर सरेआम सस्पेंड। पिछले कार्यकाल में उन्होंने मंडल स्तर पर कानून-व्यवस्था की समीक्षा बैठकें लेनी शुरू की थीं। समीक्षा बैठक में अफसर की कोताही पाई गई नहीं कि उसे सस्पेंशन का आर्डर तत्काल थमा दिया जाता। अफसरों पर सार्वजनिक तौर पर गिरती इस गाज को लेकर जनता की तालियां तेज होती गईं। लेकिन इससे उत्तर प्रदेश के प्रशासन में कोई साफ-सफाई नजर नहीं आई। कुछ ही वक्त बीतते ना बीतते अफसर भी बहाल हो जाते। मायावती जनता में ये संदेश देना चाहती थीं कि उनके इस कदम से प्रदेश की पूरी व्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। लेकिन व्यवस्था कितनी पटरी पर आ पाई है, इसे देखने के लिए उत्तर प्रदेश के सुदूरवर्ती इलाकों का दौरा करना पड़ेगा। इसका मूल्यांकन करने के लिए हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि अब मायावती अपने दम पर पूरी बहुमत की सरकार चला रही हैं। जबकि उन्होंने जब ये लोकलुभावन फैसले लिए थे – तब वे भारतीय जनता पार्टी की बैसाखी पर सवारी करके सरकार की कमान संभाले हुए थीं।
लेकिन ये भी सच है कि नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री जैसे नहीं हैं। ये भी सच नहीं है कि वे जनता के बीच लोकप्रिय होने के लिए इस टोटके का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये तो दबी जबान से उनके विरोधी भी मान रहे हैं। लेकिन असल सवाल ये है कि क्या उनके इस कदम से सचमुच अफसरशाही में गुणात्मक बदलाव आ रहा है। उपरी तौर पर कई लोगों को ये बदलाव बखूबी नजर आ रहा है। कई ऐसे भी लोग हैं – जिन्हें लगता है कि नीतीश की अगुआई में बिहार में नई राजनीतिक संस्कृति का विकास हो रहा है, जिसका प्रशासन पर गुणात्मक असर पड़ रहा है। इसे लेकर फिलहाल जनता भी गदगद नजर आ रही है।
तो आखिर क्या वजह है कि जनता दल के कई नेता इसे लेकर परेशान हैं। मुख्यमंत्री अपने जनता दरबार में लोगों से सीधे मुखातिब होते हैं और उनकी समस्याओं को सुनते भी हैं। लगे हाथों उसका समाधान करने का आदेश भी थमा देते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि ये सारी कवायद उन्हीं अफसरों को करनी है, जिनके खिलाफ जनता मुख्यमंत्री के दरबार पहुंच रही है। ऐसा इक्के-दुक्के मामलों में ही हो रहा है। लेकिन ये भी सच है कि मुख्यमंत्री के जनता दरबार में पेश ज्यादातर अर्जियां उन्हीं अफसरों के पास भेज दी जाती हैं। अफसर तो ठहरे अफसर..इतनी जल्दी बदल गए तो फिर अफसर कैसा। वे फिर से मामले को लटकाने में ही अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। परेशान शख्स कितनी बार पूर्णिया और रक्सौल से पटना तक जनता दरबार तक की दौ़ड़ लगा सकता है।
समाजवादी आंदोलन और सोच के लिए मशहूर बिहार के लोगों में इन दिनों दो वाक्य जमकर चर्चा में हैं। इनमें से एक कहावत उस देवीलाल की देन है, जिनके लोकदल के साथ नीतीश कुमार ने विधिवत राजनीति की शुरूआत की थी। देवीलाल ने कहा था – लोकराज, लोकलाज से चलता है। दूसरी कहावत है – राज इकबाल से चलता है। दिलचस्प बात ये है कि जनता दल के ज्यादातर कार्यकर्ता ही इन दिनों इन कहावतों को दोहराते फिर रहे हैं। हो सकता है, इसके पीछे कई लोगों की कुंठा भी काम कर रही होगी, जो अपने राज के बावजूद कमाई करने के मौके से महरूम हैं। लेकिन ये भी पूरा सच नहीं है। लोगों का तर्क है कि मुख्यमंत्री का काम बीडीओ और डीएम के स्तर के मामले सुलझाना नहीं है, बल्कि ऐसी व्यवस्था करना है, जिसके तहत अफसरशाही खुद ब खुद ऐसे फैसले ले सके। लोगों का तर्क है कि परेशान जनता पहले बीडीओ को अपनी शिकायत देती है। उसकी सुनवाई नहीं होती तो उसे भरोसा होता है कि डीएम उसकी परेशानी जरूर दूर करेगा। जब वह भी ध्यान नहीं देता तो वह मुख्यमंत्री या मंत्री के दरबार पहुंचती है। उसे अपने नेता पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है।
जनता परिवार के नेताओं का असल डर ये है कि यहां मामला सीधे मुख्यमंत्री के दरबार का है। जिस पर कार्रवाई नहीं हुई तो ना सिर्फ नीतीश कुमार, बल्कि पूरी पार्टी की साख पर ही सवाल उठ खड़े होंगे। क्योंकि अफसरशाही वही कर रही है, जिसकी वह आदी रही है। पंद्रह-सोलह साल तक बदहाली और भरोसा खिलाफी के दौर में जीती रही बिहार की जनता को इन दिनों राहत मिली भी है। त्वरित न्यायालयों के जरिए अब तक करीब 28 हजार अपराधियों को निचली अदालतें सजा सुना चुकी हैं। घूसखोरी पर लगाम के लिए नीतीश कुमार पचास हजार रूपए का इनाम तक घोषित कर चुके हैं। इसके बावजूद जनता दल के नेता और कार्यकर्ता प्रसन्न नहीं हैं। हाल ही में राजगीर में संपन्न चिंतन बैठक में कई कार्यकर्ताओं और निशाने पर नीतीश सरकार के ये लोकलुभावन फैसले भी रहे। कुछ राजनीतिक जानकार इसे नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमाई पर लगी लगाम के खिलाफ निकली भड़ास बता रहे हैं। लेकिन उनकी भी शिकायतों और सवालों को नकारा नहीं जा सकता। ये सच भी है कि अगर मुख्यमंत्री के दरबार में शिकायत के बाद भी जनता को राहत नहीं मिलेगी तो वहां कहां जाएगी। वह किस पर इकबाल करेगी। ये सच है कि फिलहाल नीतीश कुमार को इन सवालों का जवाब देने की जरूरत नजर नहीं आ रही है। लेकिन अधिकारियों का रवैया ऐसा ही रहेगा तो इसका भी उन्हें जवाब देना पड़ेगा ही। अगर वक्त रहते प्रशासन को कसा नहीं गया तो बरबीघी जैसी जगहों में कैबिनेट की बैठक करने जैसी घटनाओं को जनता देर तक झेल नहीं पाएगी।

Tuesday, February 3, 2009

तो पोर्न उद्योग को भी चाहिए राहत का पैकेज !

उमेश चतुर्वेदी
क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि किसी एशियाई मुल्क में पोर्न उद्योग को बचाने के लिए खुलेआम मांग उठे। आपको सुनने में ये हैरतनाक भले ही लग रहा हो – लेकिन अमेरिका में ऐसी मांग उठने लगी है। दरअसल एशियाई मुल्कों में सेक्स और इससे जुड़ा पोर्न उद्योग भले ही ढके-छुपे चलता हो, लेकिन यूरोपीय और अमेरिकी समाज के लिए सेक्स और नैतिकता कोई दबी-छुपी बात नहीं है-लिहाजा यहां पोर्न साहित्य और सेक्स से जुड़ी चीजों के व्यापार ने भी बाकायदा एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर ली है। यही वजह है कि अब इस उद्योग को बचाने के लिए अमेरिका में मांग भी उठने लगी है। इस साल के दूसरे हफ्ते में अमेरिका की मशहूर पोर्न मैगजीन हसलर के मालिक लैरी फ्लिंट और टीवी पर प्रसारित किए जाने वाले मशहूर पोर्न कार्यक्रम गर्ल्स गॉन वाइल्ड के प्रोड्यूसर जो फ्रांसिस एक साथ प्रेस के सम्मुख अवतरित हुए। उन्होंने अमेरिकी सरकार से मांग की कि अमेरिका के पोर्न उद्योग को मंदी से बचाने के लिए पांच अरब डॉलर की सहायता दी जानी चाहिए।
वैश्विक मंदी का सामना कर रहा अमेरिकी समाज इन दिनों तरह-तरह की चिंताओं से परेशान है। मंदी ने आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर अमेरिकी समाज के सामने ढेरों चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। इनके बीच एक और परेशानी से अमेरिकी समाज दो-चार हो रहा है। जाहिर तौर पर ये चिंताएं बेहद निजी और पारिवारिक हैं। चूंकि अमेरिकी समाज बेहद खुला है, लिहाजा ये निजी चिंताएं भी इन दिनों मीडिया में चर्चा और बहस का विषय बनी हुई हैं। ऐसी ही चिंताओं में से एक है अमेरिकी लोगों की सेक्स लाइफ की समस्या। मंदी का अमेरिकी लोगों की सेक्स लाइफ पर क्या असर पड़ रहा है, इसे लेकर भी इन दिनों वहां अध्ययनों और निष्कर्षों की बाढ़ आई हुई है। अमेरिकी मीडिया इन दिनों ऐसे अध्ययन रिपोर्टों से भरा पड़ा है।
ऐसा नहीं कि सबको यही चिंता सता रही है कि मंदी के चलते अमेरिकी लोगों की सेक्स लाइफ कम हो रही है या होगी। अभी हाल ही में एक अध्ययन रिपोर्ट अमेरिकी अखबारों में छपी। जिसे भारत के भी कुछ बड़े अखबारों ने प्रकाशित किया। अमेरिका के कुछ जाने-माने नृतत्वशास्त्रियों ने साल दो हजार नौ को सेक्स वर्ष घोषित किया है। उनका मानना है कि मंदी के चलते जीवन में आई नीरसता से बचने के लिए अमेरिकी लोग इस साल अपने बेडरूम का सहारा लेंगे। अगर ऐसा ही रहता तो अमेरिकी लोगों को कम से कम अपने इस बेहद निजी मसले पर चिंतित होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए थी। सरकार को भी परेशान होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए थी। लैरी फ्लिंट और जो फ्रांसिस की मांग के बाद अमेरिकी सरकार की ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। लेकिन माना जा रहा है कि इस मांग से सरकार परेशान जरूर है।
अमेरिका में यूं तो मंदी की छाया पिछले साल जुलाई में ही दिखने लगी थी। लेकिन सितंबर में जब लीमैन ब्रदर्स ने खुद को दिवालिया घोषित किया तो मंदी की ये मार सतह पर आ गई। इसके साथ ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था के डांवाडोल होने की खबरें तेज हो गईं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तर्ज पर विकसित हो रही दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाएं भी इस मंदी की मार से बच नहीं सकीं। भारत के शेयर बाजार, प्रॉपर्टी और ऑटोमोबाइल उद्योग की भी हालत छुपी नहीं है। इस पर काफी-कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है। चुनावी साल में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अक्टूबर में 700 अरब डॉलर के पैकेज का ऐलान किया। जिसे तीन अक्टूबर को सीनेट की मंजूरी भी मिल गई। लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी तक पटरी पर लौटती नहीं दिख रही है। वैसे अमेरिका में मंदी का सबसे ज्यादा असर बैंकिंग, बीमा और ऑटोमोबाइल उद्योग पर पड़ा है और 700 अरब डॉलर का ये पैकेज भी इन्हीं उद्योगों के लिए घोषित किया गया है। इसके बावजूद ऑटोमोबाइल उद्योग खुद के लिए अलग से 25 अरब डॉलर के पैकेज की मांग भी कर रहा है। जिसके लिए पिछले साल सीनेट की समिति के सामने ऑटोमोबाइल उद्योग के प्रतिनिधियों ने अपना मांग पत्र पेश भी किया। जॉर्ज बुश जाते-जाते अलग से 350 अरब डॉलर का पैकेज देना चाहते थे। हालांकि सीनेट ने इसे मंजूर नहीं किया और जॉर्ज बुश का ये सपना अधूरा ही रह गया।
बहरहाल पोर्न उद्योग का तर्क है कि जब इतना भारी-भरकम पैकेज बैंकिंग, बीमा और ऑटोमोबाइल उद्योग को देने के लिए मंजूर किया जा सकता है तो उसे बचाने के लिए पैकेज क्यों नहीं दिया जा सकता है। वैसे भी अमेरिका में पोर्न उद्योग कोई छोटा-मोटा उद्योग नहीं है। इसका सालाना टर्न ओवर करीब 13 अरब डॉलर है। इससे हजारों लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है। भारतीय उपमहाद्वीप और अरब देशों में भले ही ये तर्क अटपटा लगे। लेकिन अमेरिकी पोर्न उद्योग का कहना है कि वहां के मानसिक स्वास्थ्य को बचाए रखने के लिए इस उद्योग को भी बचाया जाना जरूरी है। अपनी प्रेस कांफ्रेंस में लैरी फ्लिन्ट ने जो तर्क दिया, वह भी गजब का है। उन्होंने कहा कि मंदी के दौर में जिस तरह ऑटोमोबाइल की खरीद-बिक्री कम हो गई है, कुछ वैसे ही आम अमेरिकियों की यौनेच्छा कम हो गई है। फ्लिन्ट का कहना है कि भले ही मोटर गाड़ियां न खरीदी जायं, लेकिन इस बीमारी को व्यापक नहीं होने दिया जा सकता।
जिस तरह नए आर्थिक मॉडल ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जमीन देखने के लिए मजबूर किया है – कुछ वैसी ही हालत वहां के पोर्न उद्योग के लिए भी है। खबरें तो ऐसी भी आ रही हैं कि आम अमेरिकी इसे लेकर नाक-भौं सिकोड़ रहा है। दरअसल नए आर्थिक और सामाजिक मॉडल में अमेरिकी ने नई व्यवस्था गढ़ी है, उसी के कुचक्र में वह फंसता नजर आ रहा है। पोर्न उद्योग की मांग और उसका खुलकर ऐसा तर्क देना भी इसी का प्रतीक है।
जार्ज बुश तो इस उद्योग को बचाने का कोई उपाय तो नहीं कर गए, लेकिन अब पोर्न उद्योग की निगाहें नए राष्ट्रपति बराक ओबामा पर टिक गई हैं। उसे उम्मीद है कि ओबाम उसकी मांग का जरूर खयाल रखेंगे। हालांकि कुछ – कुछ परंपरावादी मान्यताओं के पक्षधर रहे ओबामा के लिए इस मांग पर खुल कर विचार करना ही आसान नहीं होगा, मांग पूरा करना तो अलग की बात है।

सुबह सवेरे में