Monday, July 20, 2009

डंडे का धंधा


उमेश चतुर्वेदी
बुढ़ापे का सहारा, विकलांगों का साथी रही छड़ी का धंधा तो हम में से शायद ही कोई होगा, जिसने नहीं देखा होगा। लेकिन डंडे का धंधा...पहली बार सुनकर आपको हैरत होनी स्वाभाविक है। लेकिन हमने तो डंडे का धंधा जब अपनी नंगी आंखों से देखा तो हमें कितनी हैरानी हुई होगी, इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। डंडे के इस धंधे से हमारा साबका पड़ा शिमला की जाखू पहाड़ियों पर विराजमान हनुमान मंदिर पर। सैलानियों की पसंदीदा जगहों पर स्थित मंदिरों पर जाते ही सबसे पहले साबका पड़ता है प्रसाद और पूजा की सामग्री बेचने वाले लपका किस्म के दुकानदारों से। पूरे शहर में प्रसाद और पूजा की सामग्री भले ही सस्ती होगी, लेकिन क्या मजाल कि मंदिर के ठीक दरवाजे पर स्थित इन दुकानों पर पूजा का सामान सस्ता मिले। लेकिन जाखू मंदिर पर दूसरी हैरत हमारा इंतजार कर रही थी। यहां वैसी महंगाई नजर नहीं आई, जिसके हम दूसरे तीर्थस्थलों पर आदी रहे हैं।
लेकिन यहां प्रसाद बेचते वक्त दुकानदार पास पड़े बेंत के तीन से पांच फीट लंबे डंडे के ढेर की ओर इशारा करना नहीं भूलता था। चूंकि किसी तीर्थ स्थल पर पूजा सामग्री के साथ पहली बार डंडा बिकते देखा तो हमने पहले तो कोई टोटका सोचा। हमें लगा कि शायद यहां हनुमान जी को डंडा भी चढ़ाया जाता होगा। लेकिन हमारा ऐसे टोटकों में कोई भरोसा नहीं रहा, लिहाजा हमने डंडा खरीदने से मना कर दिया। लेकिन प्रसाद लेकर जैसे ही हमने मंदिर की चढ़ाई की ओर पहला कदम रखा, हमें डंडे की वकत और जरूरत समझ में आ गई। हनुमान जी का मंदिर हो और बंदरों की फौज वहां ना हो, ऐसा आपने कहीं नहीं देखा होगा। तो जाखू भला इससे कैसे दूर रहता। बंदरों की फौज ने हमें घेर लिया। कई तो दो-दो पैरों पर खड़े होकर हमारे हाथ में लटके थैले की ओर लपक पड़े। डर के मारे मेरी छोटी बेटी मुझसे चिपक गई तो बड़ी श्रीमती जी का हाथ थामे आगे बढ़ने लगी। इसी बीच एक बंदर ने झपट्टा मारा और पॉलिथीन के बैग का हत्था ही श्रीमती जी के हाथ में रह गया, बाकी पूरा बैग हनुमान जी के जीते-जागते गणों के हाथ। डर के मारे बच्चे चिल्लाने लगे। इसके बाद तो मैंने सारी श्रद्धा एक किनारे रखी और मेरा गंवई अनुभव बंदरों पर पिल पड़ा। मेरे हाथ में लकड़ी का एक गिफ्ट आइटम था। उसके ही आगे बंदरों की फौज भाग खड़ी हुई। अभी हम इनसे निबटे ही थे कि आगे चल रहे एक दंपति की चीख-पुकार ने वहां फैली शांति में खलल डाल दी। दरअसल उस ग्रुप की महिला की आंखों से चश्मा ही बंदर महाराज छीन ले गए। इस दौरान महिला की आंख में बंदर का नाखून चुभते रह गया। हालांकि चेहरा लहू-लुहान जरूर हो उठा था।
बाद में मंदिर से लौटने के बाद पता चला कि प्रसाद के साथ बिक रहा डंडा दरअसल हनुमान जी को चढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि उनके आक्रामक हो चुके गणों को दूर रखने में मदद करता है। जो ज्यादा चालाकी दिखाने की कोशिश करता है, उसके आंख से चश्मा गायब हो जाता है या फिर हाथ से बैग। मंदिर प्रशासन इन बंदरों को भगाने के लिए कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं करता। उसने जगह – जगह बंदरों को खाना ना देने और सावधान रहने की चेतावनी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है। लिहाजा डंडे का धंधा पूरी शिद्दत से जारी है। आप अगर डंडा खरीदना ना चाहें तो आपको दुकानदार किराए पर भी डंडा दे सकता है। किराया भी महज पांच रूपए। शिमला की पहाड़ियों पर स्थित इस हनुमान की दूर-दूर तक प्रसिद्धि इसलिए है, क्योंकि कहा जाता है कि लक्ष्मण को बचाने के लिए संजीवनी बूटी लाते वक्त हनुमान जी कुछ देर तक यहां सुस्ताने के लिए रूके थे। जाहिर है यहां सैलानियों की भारी भीड़ रोजाना जुटती है। ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि डंडे का ये धंधा कितनी बड़ी कमाई का स्रोत बन पड़ा है।
यूं तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग डंडे के धंधे के लिए बदनाम रहे हैं। लेकिन उनका धंधा डंडा बेचने की बजाय डंडे के दम पर काम कराना या काम निकालना रहा है। पिछले कुछ वक्त से महाराष्ट्र में यही काम राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कर रही है। लेकिन उनका डंडे का धंधा सीधे पैसे कमाने के लिए नहीं , बल्कि वोटों की फसल काटने के लिए है। एक बार वोटों की फसल तैयार हो गई तो पैसे की भला कहां कमी रहती है। पिछले आम चुनावों में शिवसेना - बीजेपी के वोट बैंक में जिस तरह सेंध लगाई, उससे साफ है कि राज ठाकरे का धंधा कामयाब रहा। वैसे एक मुहावरा भी प्रचलन में है – डंडे के दम पर काम कराना। ये मुहावरा चलन में इतना है कि बंदूक और पिस्तौल के दम पर अच्छा चाहे बुरा, जैसा भी काम कराएं, कहा तो यही जाता है कि डंडे के दम पर काम हुआ। सही मायने में ये भी डंडे का धंधा ही है। ये बात और है कि जाखू में डंडे का धंधा, बाकी जगहों के व्यवसाय से तो अलग है ही।

Friday, June 26, 2009

ऐसे भी होते हैं लोग ....

उमेश चतुर्वेदी
जेठ की तपती दोपहरी के बीच शिमला जाकर इच्छा तो एक ही होती है... किसी पहाड़ी चोटी पर जाकर ठंडी हवाओं के बीच दूर-दूर तक पसरी वादियों का दीदार करें। लेकिन ऐसा कहां हो पाता है। मैदानी इलाके में रहने के आदी मानव मन को तपती गर्मी से निजात मिली नहीं कि पैरों में जैसे पंख लग जाते हैं और शुरू हो जाता है घूमने का सिलसिला...ठंडे मौसम के बीच पसरी खूबसूरत वादियों में फैले यहां के माल रोड और रिज इलाके का चप्पा-चप्पा छान मारने के लिए जी उछल पड़ता है।
जून की तपती गरमी मे दिल्ली से निकलकर शिमला पहुंचा हमारा मन भी कहां मानने वाला था। पूरा दिन कभी अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी रही शिमला को अपने पैरों तले नापने में गुजर गया। शाम होते – होते पैरों ने जवाब देना शुरू कर दिया, लेकिन मन भला कहां मानने वाला था। लेकिन थकान और आंखों में तिर रही नींद के आगे पहले दिन हमें झुकना ही पड़ा। जाहिर है इसके बाद होटल में अपना बिस्तर ही सबसे बड़ा साथी नजर आया।
लेकिन शिमला आएं और लार्ड डफरिन के बनवाए भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान का दर्शन ना करें..ये कैसे हो सकता था। अंग्रेजों की गर्मी की राजधानी में कभी वायसराय का ये निवास हुआ करता था। ब्रिटिश और बेल्जियन वास्तुकला का बेहतरीन नमूना ये भवन आजादी के बाद भारत के राष्ट्रपति का ग्रीष्मकालीन निवास बना। तब सिर्फ गरमियों में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रपति यहां रहने आते थे। पढ़ाई-लिखाई के शौकीन रहे दूसरे राष्ट्रपति डॉ.एस. राधाकृष्णन को इस खूबसूरत और विशाल भवन का बाकी समय खाली रहना खलता रहा, लिहाजा उन्होंने इसे 1965 में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान को दान दे दिया। तब से यहां पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च और अध्ययन मनन जारी है। बहरहाल आधुनिक भारत के इस बेहतरीन विद्यास्थान को देखने की इच्छा पढ़ने – लिखने में दिलचस्पी रखने वाले हर इंसान को होती है। लिहाजा सपरिवार हम भी माल रोड से भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान जा पहुंचे। पहले तो काफी देर तक टैक्सियों का इंतजार किया। साझे में चलने वाली इन टैक्सियों का कुछ ही महीनों से हिमाचल प्रदेश पर्यटन विभाग ने शुरू किया है। लेकिन उस दिन पता नहीं क्या वजह रही..घंटों इंतजार के बाद भी टैक्सियों के दर्शन नहीं हुए। तिस पर तुर्रा ये कि उनकी इस गैरहाजिरी के बारे में जानकारी देने की जरूरत भी कोई नहीं समझ रहा था। मजबूरी में हम बाल-बच्चों समेत पैदल ही उच्च अध्ययन संस्थान की ओर चल पड़े। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लार्ड डफरिन द्वारा बनवाए इस भवन को देखने का लुत्फ उठाने के बाद जब होटल लौटने का वक्त हुआ तो सारा उत्साह काफूर हो चुका था। दरअसल लौटते वक्त की चढ़ाई के लिए पैर साथ नहीं दे रहे थे। लेकिन मजबूरी में पैदल लौटना ही था। घिसटते हुए हम अभी कुछ सौ कदम ही चले होंगे कि अचानक हमारे बगल में एक जिप्सी आकर रूकी। सेना पुलिस के जवानों की इस जिप्सी को देखकर हैरत होना स्वाभाविक था। हम अभी कुछ समझ पाते कि जिप्सी में से एक सवाल उछला – कहां जाना है?
जैसा कि सुरक्षा बलों की आवाज में जैसी तल्खीभरी कड़क होती है, वैसा कुछ नहीं था। हमें चूंकि माल रोड लौटना था, लिहाजा हमारा जवाब भी वही था। जिप्सी में सवार सेना पुलिस के दोनों जवान जवाब सुनकर कुछ देर ठिठके। दरअसल उन्हें कहीं और जाना था। लेकिन उन्होंने हमारे साथ छोटे बच्चों को देखा। इसके बाद उनका कर्तव्यबोध जाग गया। उन्होंने गाड़ी में बैठने का इशारा किया। इसके बाद हमने कब माल रोड की चढ़ाई पूरी कर ली, हमें पता ही नहीं चला। इस बीच उनसे हमारी निजी बातचीत भी हुई। मैं उनका नाम पूछते ही रह गया...लेकिन उन्होंने नाम नहीं बताया। बस उनका यही जवाब था, दूर-देश से आए लोगों के हम इतना भी काम आ सकें..बस यही काफी है। जब तक हम गाड़ी से उतरते, वे लोग जिस तेजी से आए थे, उसी तेजी से अपनी राह लौट गए।
जो हिमाचल सरकार सैलानियों के ही दम पर जमकर कमाई कर रही है..उसे भी ये आवाज सुननी चाहिए। टूरिस्ट स्थलों पर ठगी और लूट की घटनाएं देखते रहने के लिए आदी रहे हमारे मन के लिए तो ये अपनापा सुखद हैरत में डालने के काफी है।

Monday, June 8, 2009

ये हिंदी की जीत है....

उमेश चतुर्वेदी

ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट और अगाथा संगमा में अपने पिताओं की विरासत की राजनीति के अलावा क्या समानता है..ये सवाल कुछ लोगों को अटपटा जरूर लग सकता है। लेकिन जिन्होंने 28 मई को केंद्रीय मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण समारोह देखा है, उन्हें इस सवाल का जवाब मालूम है। अभिजात्य माहौल में पले-बढ़े, महंगे कान्वेंट और विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे इन नौजवानों के लिए अंग्रेजी वैसी ही है, जैसे छोटे-शहरों और गांवों के पिछड़े स्कूलों में पढ़े लोगों की सहज जबान हिंदी है। लेकिन इन नौजवान नेताओं ने राष्ट्रपति भवन के गरिमामय माहौल में जिस तरह हिंदी को अपनाया और देश की अहम भूमिका निभाने की शपथ इसी जबान में ली, उससे साफ है कि नए भारत को समझने का उनका नजरिया मनमोहन मंत्रिमंडल में शामिल उनके दूसरे साथियों से कुछ अलग है।
22 मई को जब मनमोहन मंत्रिमंडल की पहली खेप के 19 मंत्रियों में से महज चार ने ही हिंदी में ही शपथ ली थी। तब इसे लेकर खासकर हिंदी क्षेत्रों में हैरतनाक प्रतिक्रिया हुई थी। गैर हिंदीभाषी मंत्रियों को एक बारगी माफ भी कर दें तो ठेठ हिंदीभाषी इलाके के नेताओं का अंग्रेजी में शपथ लेना कम से कम हिंदीभाषी क्षेत्रों के लोग पचा नहीं पाए। वैसे कोई हिंदी में मंत्री पद की शपथ ले या फिर अंग्रेजी में, इसे वह नेता विशेष अपना निजी मामला बता सकता है, क्योंकि संविधान ने उसे ये छूट दे रखी है। लेकिन क्या सार्वजनिक जीवन में आए लोगों को इस आधार पर माफ किया जा सकता है। कम से कम उनके ज्यादातर वोटर इससे शायद ही सहमत हों। इसकी वजह ये नहीं है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है और एक आम भारतीय अपने नुमाइंदे से उसका भाग्यविधाता बनने की शपथ हिंदी में ही लेना पसंद करता है। दरअसल पूरे देश में वोट मांगने का जरिया भारतीय भाषाएं ही हैं। जहां हिंदी बोली-समझी जाती है, वहां नेता अपने वोटरों से हिंदी में ही वोट मांगते हैं। जहां हिंदी नहीं है, वहां के नेता अपने वोटरों से उर्दू, बंगला, गुजराती, मराठी, तमिल, मलयालम जैसी स्थानीय भारतीय भाषाओं में ही अपील करते हैं। अहिंदीभाषी इलाकों को छोड़ दें तो हिंदी भाषी इलाकों से चुनकर आए नेताओं का ये फर्ज नहीं बनता कि जिस भाषा में उन्होंने वोट मांगा है, उसी भाषा में अपने लोगों की नुमाइंदगी करें। कपिल सिब्बल, अजय माकन या श्रीप्रकाश जायसवाल ने शायद ही किसी से अंग्रेजी में ही वोट मांगा होगा। लेकिन उन्होंने जिस तरह अभिजात्य अंग्रेजी में शपथ ली, उससे लोग हैरत में पड़े। ऐसे लोगों के लिए पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय से चुनकर आई अगाथा संगमा करारा जवाब ही मानी जाएंगीं, जिन्होंने गैरहिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी में पूरे आत्मविश्वास से शपथ लेकर लोगों का मन मोह लिया, तालियां तो खैर सबसे ज्यादा बटोरी हीं।
आजादी के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के सवाल पर पूरा देश एकमत था। लेकिन हिंदी को लेकर तत्कालीन नेहरूवादी व्यवस्था के दिल में क्या था, इसका उदाहरण है कि अंग्रेजी में सरकारी कामकाज करने को पंद्रह साल तक के लिए छूट दे दी गई। ऐसा माना गया कि इस दौरान हिंदी अपना असल मुकाम हासिल कर लेगी। लेकिन हुआ ठीक उलटा। सरकारी स्तर पर हिंदी आजतक अपना मुकाम हासिल नहीं कर पाई। लेकिन बाजार ने वह काम कर दिखाया, जो अंग्रेजी वर्चस्व वाली केंद्र सरकार की उपेक्षा के चलते नहीं हो पाया। जिस तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए, साठ से दशक में पूरा राज्य जलता रहा। उसी तमिलनाडु के लोग भी अब अपने बच्चों को खुशी-खुशी हिंदी पढ़ा रहे हैं। कभी अंग्रेजी अखबारों के लिए हिंदी की खबरें दोयम दर्जे की मानी जाती थीं। अब अंग्रेजी के ही अखबार चेन्नई में आ रहे इस बदलाव को खुशी-खुशी छाप रहे हैं। ये कोई मामूली बदलाव नहीं है।
एक दौर तक हिंदी फिल्में हिंदी भाषा के राजदूत की भूमिका निभा रही थीं। लेकिन नब्बे के दशक में आई टेलीविजन क्रांति ने इसमें और इजाफा ही किया है। इस दौरान टेलीविजन चैनलों ने हिंदी के प्रसार में जबर्दस्त भूमिका निभाई। कभी बंगाल, तमिलनाडु और कर्नाटक के लोग हिंदी के नाम पर नाकभौं सिकोड़ते थे, लेकिन ये टेलीविजन क्रांति का ही असर है कि अब इन गैर हिंदीभाषी इलाकों के बच्चों की पहली पसंद बंगला, तमिल या मलयालम टेलीविजन चैनल की बजाय हिंदी चैनल में ही काम करना है। इसके लिए उनका एक ही तर्क होता है, हिंदी टेलीविजन चैनल में काम करने से उनकी अखिल भारतीय पहचान बनती है। बंगला या मराठी में काम करने से उनकी दुनिया सिमट जाती है। और उन्हें ये सिमटी हुई दुनिया पसंद नहीं है। उदारीकरण में कई बुराइयां हैं। लेकिन ये भी सच है कि उसने मशहूर अंग्रेजी समालोचक ई एम फास्टर की उस अवधारणा को सच साबित किया है, जिसके मुताबिक अंतरराष्ट्रीय होने की पहली शर्त स्थानीय होना है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के जरिए स्थानीयता का जो महत्व बढ़ा है, उसके चलते हिंदी की ताकत बढ़ी है। मजे की बात ये है कि आज उदारीकरण के दौरान पली-बढ़ी पीढ़ी हिंदी की ताकत समझ रही है। लेकिन जिस मनमोहन सिंह ने इस उदारीकरण को बढ़ावा दिया, उनके ही मंत्रिमंडल के ज्यादातर मंत्री हिंदी और उसकी स्थानीयता की ताकत को नहीं समझ रहे हैं। मनमोहन मंत्रिमंडल के 56 सदस्यों ने अंग्रेजी में ही शपथ ली है, जबकि हिंदी में शपथ लेने वाले महज 22 लोगों ने ही देश की असल राष्ट्रभाषा हिंदी में शपथ ली।
मनमोहन मंत्रिमंडल के ज्यादातर मंत्रियों के इस रवैये से ये मान लिया जाय कि हिंदी अब भी गंवारों और जाहिलों की भाषा है। अंग्रेज हिंदी समेत समस्त भारतीय भाषाओं के लिए वर्नाक्युलर विशेषण का इस्तेमाल करते थे। जो आजाद भारत में भी चलन में है। वर्नाक्युलर लैंग्वेज का मतलब होता है दासों की भाषा। कहना ना होगा आजाद भारत में भी कम से कम हिंदी को लेकर ये मानसिकता शासक वर्ग के एक बड़े हिस्से में अब भी बनी हुई है। तभी हिंदी भाषी इलाके के भी राजनेता को भी सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही करने में गर्व का अनुभव होता है। कई के लिए तो अंग्रेजी का इस्तेमाल अमेरिका और यूरोप तक अपनी पैठ और पहुंच बनाने का माध्यम भी होती है। हालांकि वे अपने उभार को जनतंत्र का नतीजा बताते नहीं थकते। ये बात और है कि भाषा को लेकर उनका ये रवैया कम से कम उनके लोकतांत्रिक दावे को खोखला ही साबित करता है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये पीढ़ी अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात बनती जाएगी। राहत की बात ये है कि हमारे पास अभिजात्य में रचे-पगे और अंग्रेजी माध्यम से पले-बढ़े ज्योतिरादित्य, सचिन, अगाथा या फिर जितिन प्रसाद जैसे नई पीढ़ी के लोग हैं। जो कम से कम अपनी पहली वाली पीढ़ी से भाषा के नाम पर प्रगतिशील और ठेठ देसी समझ जरूर रखते हैं। उम्मीद बनाए रखने के लिए उन पर भरोसा न करने का फिलहाल कोई कारण नजर नहीं आता।

Thursday, May 21, 2009

लोकतंत्र में बहिष्कार बना हथियार

उमेश चतुर्वेदी
हाल में संपन्न हुए आम चुनावों में कम मतदान को लेकर उठते सवालों का दौर अभी तक थमा नहीं है। गरमी के चलते मतदान कम हुआ या फिर वोटरों की उदासीनता इसकी बड़ी वजह बनी, इसे लेकर बहस-मुबाहिसे और चर्चाओं का दौर जारी है। लेकिन इन्हीं चुनावों का जिस बड़े पैमाने पर बहिष्कार हुआ..उस पर अभी लोगों का ध्यान कम गया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में ये पहला मौका है, जब लोगों ने खुलकर इतने बड़े पैमाने पर वोटिंग का बहिष्कार किया। अब तक लोग या तो वोट डालते रहे हैं या फिर मतदान केंद्र पर जाते नहीं रहे है। लेकिन इस बार जिस तरह तमाम लोकसभा सीटों के खासकर ग्रामीण इलाकों से मतदान के बहिष्कार की खबरें आईं...उससे लोकतांत्रिक भारत की नई तस्वीर उभरती है।
1973 में जयप्रकाश नारायण ने पीपुल्स फॉर डेमोक्रेसी का जो अभियान शुरू किया था, उसका मकसद था निचले पायदान तक लोकतंत्र को पहुंचाना। आज से करीब साढ़े तीन दशक पहले जब जेपी ने ये आंदोलन शुरू किया था..तो उसका मतलब साफ है कि उस वक्त भी देश की रहनुमाई करने वाले सफेदपोश लोगों का ध्यान मजलूम और कमजोर लोगों तक उस शिद्दत से नहीं पहुंच पाया था..जितनी की उम्मीद की जा रही थी। अगर 1952 के पहले आमचुनाव को छोड़ दें, तो बाद के तकरीबन सारे चुनावों में मतदाताओं को वायदों का लंबा पिटारा थमाया जाता रहा है और चुनाव बीतने के बाद उन्हें तबियत से भुलाया जाता रहा है। जयप्रकाश नारायण इसके लिए मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे को ही जिम्मेदार मानते थे। यही वजह है कि जब उन्होंने पीपुल्स फॉर डेमोक्रेसी का आंदोलन छेड़ा तो उसमें उनकी एक मांग जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की भी थी। उनका मानना था कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में जनप्रतिनिधि, चाहे वह सांसद हो या विधानसभा का सदस्य..उसे तभी जिम्मेदार बनाया जा सकेगा, जब लोगों को उसे वापस बुलाने का अधिकार हो। स्विटजरलैंड जैसे कुछ देशों में ये नियम है भी। जेपी के आंदोलन में राइट टू रिकाल को भी अहम स्थान दिया गया था।
1973 के बाद से लेकर अब तक देशभर की नदियों में ना जाने कितना पानी बह गया है। राजनीति की दुनिया में भी ना जाने कितने बदलाव हो चुके हैं। लेकिन जयप्रकाश नारायण का ये सपना पूरा नहीं हो पाया। लेकिन लोग अब जागरूक होने लगे हैं। अब लोगों को लगने लगा है कि संसद और विधानसभा में हरे-लाल कालीनों पर पहुंचने वाले नेताओं की वकत उनके वोटों की ही बदौलत है। लोगों को ये भी पता चल गया है कि जब तक वे दबाव नहीं बनाएंगे, उनके ये नेता उनकी मांगों पर ध्यान नहीं देंगे। और एक बार जीत गए तो फिर जनता के दरबार में उनकी वापसी संभव नहीं होगी। रही बात उनकी जरूरी सुविधाएं भी पूरा करने की ...तो नेता शायद ही याद रखें। लिहाजा लोग पहले भी वोट के बहिष्कार का रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। लेकिन बीते चुनावों में इस बार ये चलन कुछ ज्यादा ही दिखा। हरियाणा के जींद जिले के झांझकला के लोग पानी की गुहार लगाते- लगाते थक गए। लेकिन उनकी आवाज से उनके प्रतिनिधियों के कानों पर जूं नहीं रेंगीं। लिहाजा इस बार उन्होंने वोट के बहिष्कार का ऐलान कर दिया। उनके ऐलान ने हर पार्टी के नेताओं को मुश्किल में डाल दिया। शायद ही किसी बड़े दल का नेता था, जो वोटरों के दरबार में हाजिरी लगाने नहीं पहुंचा। उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के सिमरिया के लोग जहां विकास को लेकर वोटिंग के बहिष्कार पर आमादा हो गए तो टिकरा तिवारी, भारौनी, मजरा कंचनपुरा के लोगों ने कंचनौधा बांध में अधिग्रहीत की गई अपनी जमीनों के मुआवजे को पूरा करने की मांग को लेकर वोटिंग का बायकाट किया। औरैया जिले के गोपालपुर, चिरैयापुर और नवलपुर के लोगों का नारा ही था, विकास नहीं तो वोट नहीं। वोटिंग बहिष्कार की ये लिस्ट सिर्फ उत्तर प्रदेश से ही इतनी लंबी रही कि पूरा पेज ही भर जाय।
ऐसा नहीं कि उनके बहिष्कार को तुड़वाने और मतदान केंद्रों पर लाने के लिए उन्हें दबाव-धमकियां नहीं दी गईं। लेकिन गांधी की राह पर चलते हुए लोगों ने हर दबाव का मुकाबला किया और वोट डालने नहीं पहुंचे। फतेहपुर जिले के जुनैदपुर, सीतापुर के बिजनापुर, उन्नाव के बैरी रसूलपुर, बांगड़मउ, बिशनपुर, लढ़पुर के लोगों ने भी कुछ ऐसी ही हुंकार भरी कि नेताओं को दिन में ही तारे नजर आने लगे। मिश्रिख के गोंदरामऊ और गपोली इलाकों में भी लोगों ने कह रखा था कि वे इस बार नेताओं के झांसे में नहीं आने वाले हैं। फिरोजाबाद जिले के दलियापुर, नगला दुहिली और नसरीपुर के कुछ लोगों को पुलिस और अफसरों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। लेकिन वे वोटिंग बहिष्कार के अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए।
ऐसी खबरें तकरीबन देश के हर उस हिस्से से आईं, जो आजादी के बासठ साल बाद भी बुनियादी सहूलियतों से महरूम हैं। लोगों को लग गया है कि उनके वोट में कितनी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो नेताओं के मान-मनौव्वल का दौर बुनियादी सुविधाओं से दूर इन गांवों की धूल भरी गलियों के बीच नहीं चल पाता। कई जगह नेताओं को मुंह छुपाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। लोगों में आई इस तबदीली को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी और उनकी बढ़ती जागरूकता के तौर पर देखा जाना चाहिए। अगर ऐसे लोगों को जेपी द्वारा शुरू किए गए राइट टू रिकॉल का अधिकार मिल जाए तो सोचना पड़ेगा कि देश की लोकतांत्रिक दशा और दिशा क्या होगी।

Sunday, May 10, 2009

संजय दत्त को अब क्यों याद आ रहा है मुसलमान का बेटा होना


उमेश चतुर्वेदी
अपनी जादू की झप्पी से फिल्मी पर्दे पर लोगों की समस्याएं दूर करने में मुन्नाभाई भले ही सफल रहे हों, लेकिन राजनीति के अखाड़े में उनकी ये झप्पी उन्हीं पर भारी पड़ती नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को जादू की झप्पी देने की उनकी कोशिश को चुनाव आयोग ने सही नहीं माना और आखिरकार प्रतापगढ़ के जिलाधिकारी और जिला निर्वाचन अधिकारी को उन्हें लिखित में माफी मांगनी पड़ी। चूंकि चुनाव आयोग और अधिकारियों ने इस बयान का संज्ञान लिया, इसलिए कम से कम चुनाव प्रचार में अब संजय दत्त की इस झप्पी पर रोक तो लगती नजर आ रही है।
लेकिन इससे भी कहीं ज्यादा वे एक और खतरनाक बयान देते फिर रहे हैं। लेकिन इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। संजय दत्त कहते फिर रहे हैं कि जब वे टाडा के तहत जेल में बंद थे तो उन्हें पुलिस वाले मुसलमान का बेटा कहकर पिटाई किया करते थे। संजय कहते फिर रहे हैं कि चूंकि उनकी मां मुसलमान थीं, इसलिए उन्हें पुलिस वाले जेल में उत्पीड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। संजय दत्त ये बयान जिस समाजवादी पार्टी के मंचों से देते फिर रहे हैं, सियासी और वोटरों की दुनिया में माना जाता है कि वह मुसलमानों की रहनुमाई करती है। लिहाजा मुन्नाभाई के इस बयान पर जगह-जगह तालियां जमकर बज रही हैं और इस पर कोई सवाल नहीं उठ रहा है। अव्वल तो भारतीय जनता पार्टी को ये सवाल उठाना चाहिए था, हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की उसकी कोशिशों में एक कोशिश और भी जुट जाती। लेकिन उसे भी संजू बाबा का ये बयान भड़काऊ और सवालिया घेरे वाला नहीं लग रहा है। बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस इस बयान पर इसलिए सवाल नहीं उठा पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि चुनावी दौर में जो भी मुस्लिम मतदाता उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, वे कहीं विदक नहीं जायं।
लेकिन इससे इस बयान पर सवाल उठाने की गुंजाइश खत्म नहीं हो जाती। ये सच है कि संजय दत्त की मां नरगिस दत्त भले ही मुसलमान थीं, लेकिन उनका नाम सामने आते ही इस देश के जेहन में मदर इंडिया, श्री चार सौ बीस, आवारा जैसे ढेरों फिल्मों की नायिका की छवि उभरती है। बुर्के में ढंकी और लदी-फदी कोई आम मुसलमान महिला का अक्स नहीं उभरता। शायद ही किसी को याद है कि संजय दत्त को इसके पहले किसी ने किसी मुसलमान के बेटे के तौर पर याद किया हो। सब उन्हें सुनील दत्त के बेटे के ही तौर पर जानते रहे। अगर मुसलमान और हिंदू के खांचे में उन्हें बांटकर देखा जाता रहता तो नाम, राकी और साजन से लेकर खलनायक और मुन्नाभाई एमबीबीएस जैसी फिल्में सफलता का परचम नहीं लहरातीं। जिनके दम पर वे लोकप्रियता के उंचे पायदान पर खड़े हैं और उनकी ये लोकप्रियता ही है कि समाजवादी पार्टी और उसके कर्ता-धर्ता अमर सिंह ने उन्हें प्रचार मैदान में उतार रखा है।
संजय दत्त को सचमुच पुलिस वालों ने कितना उत्पीड़ित किया, इसे उन दिनों के टीवी फुटेज को ही देखकर समझा जा सकता है, जब वे टाडा कोर्ट में अपनी हाजिरी बजाने के लिए जाते थे। अदालत के बाहर सिक्युरिटी चेक के पहले उन्हें देखते ही जिस तरह पुलिस वालों की बांछें खिल उठती थीं, इसे पूरे देश ने देखा है। कुछ पुलिस वाले उत्साह में ये भूल भी जाते थे कि लोकप्रियता के पायदान पर जो शख्स खड़ा है और अदालत में पेशी के लिए आ रहा है. वह आरोपी है। इसी झोंके में वे संजय दत्त से हाथ तक मिला बैठते थे। क्या आपको लगता है कि दाऊद इब्राहीम या बबलू श्रीवास्तव कोर्ट में पेश करने के लिए लाया जाएगा तो लोग उससे हाथ मिला बैठेंगे। अदालतों में रसूखदार और ताकतवर ना जाने कितने तरह के अपराधी रोज आते हैं। लेकिन कितने पुलिस वालों की हिम्मत है कि वे सरेआम कैमरे के सामने उनसे हाथ मिला लें। लेकिन संजय दत्त से पुलिस वाले हाथ मिलाने से नहीं हिचकते थे। जिन्होंने ये फुटेज देखे हैं, उन्हें याद है कि जब संजय दत्त आते थे तो महिला सिपाहियों के चेहरे पर वैसी ही मुस्कुराहट और उत्साह नजर आता था, जैसे किसी लोकप्रिय अभिनेता को नजदीक से देखने के बाद आता है। अब जबकि संजय दत्त ये बयान देते फिर रहे हैं और समाजवादी पार्टी इसे जगह-जगह भुनाने की कोशिश कर रही है, ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि कोर्ट के बाहर संजय दत्त से हाथ मिलाने वाले सारे या अधिकतर सिपाही मुसलमान थे...निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में होगा। जब सिपाही कोर्ट में पेश होने जाते वक्त संजय दत्त से हाथ मिला सकते हैं तो क्या वे जेल में उन पर अत्याचार कर सकते हैं। ऐसा नहीं कि संजय दत्त जेल जाने से पहले सुपरहिट फिल्में नहीं दे सके थे। राकी और नाम उनके जेल जाने से पहले की सुपर हिट फिल्में हैं। क्या तब जेल कर्मचारियों को ये पता नहीं होगा कि संजय दत्त हिंदी रजतपट के कामयाब हीरो हैं। साफ है कि इन सब सवालों का जवाब ना में होगा।
अब संजय दत्त समाजवादी पार्टी के नेताओं के समझाने से खुद को मुसलमान का बेटा बताते फिर रहे हैं या फिर अपनी मनमर्जी से...ये तो गहन शोध का विषय है। लेकिन ये भी सच है कि संजय दत्त की असल दुनिया हिंदी सिनेमा का रजतपट ही है। जहां जाति और धर्म की बेड़ियों के खांचे में बांधकर अभिनेताओं के काम पर तालियां नहीं बजाई जातीं। वहां मधुबाला, तब्बू और माधुरी दीक्षित पर सीटियां धर्म और जाति को देखकर नहीं बजतीं। वहां उनका काम और उनका अभिनय देखा जाता है। सियासी मैदान में प्रचार से जाने के पहले काश संजय दत्त इस पर भी ध्यान देते।

Thursday, April 23, 2009

ऐतिहासिक मंदी से जूझ रहा जर्मनी

अंजनी राय
जर्मन चांसलर श्रीमती अंगेला मर्केल ने बुधवार को अपने दफ़्तर में आर्थिक शिखर सम्मेलन की मेजबानी की.सरकार ने इस बात को स्वीकार किया कि यूरोप की अर्थव्यवस्था नाटकीय ढंग से सिकुड़ रही है.जर्मन वित्त मंत्री पीर इस्तैन्ब्रुक ने कहा की हम वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी की दौर से गुजर रहे हैं और पहली तिमाही में 3.3 प्रतिशत तक गिरने की उमीद है.ज्ञात हो की इस वर्ष की पहली तिमाही के लिए सरकारी आंकड़े 15 मई तक प्रकाशित नहीं हो रहे हैं.इस भयावह आंकड़े 2008 की चौथी तिमाही में और 2009 की पहली तिमाही दोनों को देखते हुए इस्तैन्ब्रुक ने कहा कि इस वर्ष की पूरी अर्थव्यवस्था पाँच प्रतिशत तक जा सकती है. "एक पांच से पहले दशमलव बिंदु की संभावना कम की नहीं है,". इस्तैन्ब्रुक की टिप्पणी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी उस पूर्वानुमान को सही ठहराती है कि 2009 की जर्मनी की अर्थव्यवस्था 5.6 प्रतिशत तक जा सकती है.
29 अप्रैल को बर्लिन में 2009 के लिए नये आर्थिक अनुमानों का विवरण जारी होगा; पहले से ही यह तेजी 2.25 प्रतिशत के अपने मौजूदा अनुमान को संशोधित करने का संकेत दिया है. पर ये भी जर्मनी के आधुनिक इतिहास में सबसे बड़ी मंदी होगी.उस दौरान सम्मेलन में संघ और व्यापार अधिकारियों के साथ आर्थिक शिखर सम्मेलन के बाद बोलते हुए आर्थिक मंत्री कार्ल- थिएओदोर जू गुत्तेंबेर्ग ने कहा: "मुझे लगता है कि हम सब इस बात से सहमत है की हमारे आगे एक बहुत ही मुश्किल साल है."
ज्ञात हो की श्रीमती मेर्केल ने यह शिखर सम्मेलन बुधवार को कारोबार और व्यापार संघ के नेताओं के साथ बैठक के लिए बुलाई थी की उरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को कैसे वापस पटरी पर लाया जाये.
करीब 40 उद्योगपतियों ने जर्मनी के दो आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज के प्रभाव का विश्लेषण किया जो करीब 80 बिलियन है - हालांकि अभी ऐसे तीसरे पैकेज की कोई योजना नहीं है.
मर्केल ने शिखर सम्मेलन के बाद संवाददाताओं से कहा कि"आज यह बहुत स्पष्ट था कि हम एक तीसरे प्रोत्साहन पैकेज के बारे में, (जो उपाय है कि वे आगे विकसित किया जाना चाहिए कुछ क्षेत्रों में,)" काम कर रहे हैं, उस पर बात नहीं होनी चाहिए. "दूसरा प्रोत्साहन पैकेज ने हमें आगे सही दिशा में काम करने के साधन दिए हैं, और हमारी कोशिश होगी कि इसका प्रभाव सही दिशा में दिखे.
बर्लिन में उच्चस्तरीय बैठक भी बुलाई गयी है, जिसमें सरकार और व्यापारी समुदाय और ट्रेड यूनियनों के बीच बेहतर तालमेल और इस आर्थिक संकट में जर्मनी की प्रतिक्रिया में सुधार लाने की विषयों पर चर्चा होगी .
लेकिन यह तय है की ये आर्थिक मंदी आने वाले चुनाव में मुख्या मुदा होगा और शायद यह श्रीमती मेर्केल के दुबारे सरकार बनाने के सपने पे पानी फेर सकता है। अब तक, एक सरकारी योजना के तहत कंपनियां कर्मचारियों की छंटनी तो नहीं कर रही हैं लेकिन उनके काम के घंटे कम किये जा रहे हैं, मसलन जैसे आमतौर पर लोग हफ्ते में 40 घंटे यहाँ काम करते हैं, वे अब 25-30 घंटे करेंगे, लेकिन जैसे हालत दिख रहे हैं, उसके हिसाब से ये योजना ज्यादा दिन तक नहीं कारगर साबित हो पायेगी और जल्द ही छंटनी शुरु होगी.
हालांकि जर्मन ट्रेड यूनियन के शीर्ष नेता माइकल सोम्मर ने कहा है कि अगर छंटनी बड़े तौर पर शुरु होगी तो इसे हम एक आम आदमी के खिलाफ युद्ध के रूप लेंगे, जिसका नतीजा बहुत गहरा होगा और उसके लिए सरकार जिम्मेदार होगी। इतना ही नहीं, अशांति से इंकार नहीं किया जा सकता है!

Sunday, April 19, 2009

सियासी ड्राइंगरूम के गुलदस्ते

उमेश चतुर्वेदी
चुनावी माहौल में इन दिनों नेता बने अभिनेता बेहद चर्चा में हैं। दोनों हिंदी फिल्मों के नामी-गिरामी सितारे हैं। दोनों का नाम उस फिल्म की सफलता की गारंटी होती है। लेकिन दोनों अपनी इस फिल्मी लोकप्रियता को सियासी मैदान में भुनाने के लिए मैदान में नहीं उतर सके। इनमें से एक को जहां सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी तो दूसरे को उसकी पार्टी ने ही इस काबिल नहीं समझा। जी हां, ठीक फरमाया। यहां चर्चा संजय दत्त और गोविंदा की हो रही है।

चुनाव लड़ने और ना लड़ने की खींचतान के बीच एक सवाल पूरी तरह से गायब है। वह सवाल है कि इन राजनेताओं की क्या कोई सियासी वकत भी है, जनता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी है या फिर ये राजनीति के ड्राइंग रूम में सजाने के लिए सिर्फ गुलदस्ते की ही भूमिका निभाते हैं। गोविंदा की मुंबई के कांग्रेसी मैदान से विदाई से साफ है कि फिल्मी पर्दे पर ये राजनेता जनता की चाहे जितनी सेवा कर लें, जनता के हकों की लड़ाई चाहे जितनी कामयाबी से लड़ लें – लेकिन अगर उनमें सचमुच जनता की सेवा करने का जज्बा नहीं है तो सियासी मैदान में उनकी उपयोगिता खत्म हो जाती है और संसद में एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी पार्टियां उन्हें चुनावी मैदान से निकाल बाहर करने में भी देर नहीं लगातीं। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, ये हालत राष्ट्रवाद के मुद्दे को जिंदा रखने वाली बीजेपी और डॉक्टर लोहिया और नरेंद्रदेव की चिंता करने वाली समाजवादी पार्टी सबके साथ है। डॉक्टर लोहिया के चेले मुलायम सिंह को तो जहां भी थोड़ी उम्मीद दिखती है, वहां उनके पास फिल्मी मैदान से उतारने के लिए एक नेता मिल जाता है। जयाप्रदा, जया बच्चन, संजय दत्त और राजबब्बर के अलावा उसे कोई दिखता ही नहीं है। ये बात और ही राजबब्बर आजकल कांग्रेस की बहियां थाम बैठे हैं। वैसे राजबब्बर सियासी अभिनेताओं से कुछ अलग जरूर हैं। उन्होंने समाजवादी युवजन सभा से छात्र राजनीति शुरू की थी। पुलिस की लाठियां भी खाईं थीं। लेकिन जया बच्चन हों या जया प्रदा या फिर संजय दत्त...उनका ऐसा क्या इतिहास रहा है।

1984 के आम चुनावों में राजीव गांधी ने कुछ वैसे ही अभिनेता-अभिनेत्रियों पर भरोसा जताया था, जैसे आज अमर सिंह कर रहे हैं। तब इलाहाबाद से अमिताभ बच्चन, चेन्नई से बैजयंती माला और ऐसे ही ना जाने कितने रजत पटी चेहरे मैदान में उतार दिए गए। उनकी फिल्मी लोकप्रियता बैलेट बॉक्स में भी जमकर बरसी और वे देश की सबसे बड़ी पंचायत में जा पहुंचे। लेकिन वहां उनका प्रदर्शन कैसा रहा, ये संसद की कार्यवाही के इतिहास में दर्ज है। अमिताभ को तो जल्द ही मैदान छोड़ना पड़ा और बैजयंती माला बाली भी राजनीति को बॉय-बॉय बोल चुकी हैं। गोविंदा उसी की अगली कड़ी हैं। 2004 के आम चुनावों में उन्होंने राम नाइक जैसे कद्दावर नेता को हरा तो दिया – लेकिन जनता से उनका वैसा संवाद नहीं बना, जैसी की उनसे बतौर एक राजनेता और सांसद अपेक्षा पाली गई थी। अकेले कांग्रेस की ही ये कहानी नहीं है। बीजेपी ने भी अपनी स्टार प्रचारक हेमा मालिनी के पति धर्मेंद्र को बीकानेर की सीट से दिल्ली के दरबार में दाखिल करा दिया- लेकिन जिस जनता के वोटों से जीतकर वे संसद की सपनीली पंचायत में पहुंचे, उसके प्रति वे अपना कोई फर्ज नहीं निभा सके। परिणाम ये हुआ कि उनके वोटरों को धर्मेंद्र के लापता होने का पोस्टर लगाना पड़ा।

ये सच है कि आज के दौर में बहुत सारे राजनेता ऐसे हैं – जो अपनी जनप्रतिबद्धता को सही तरीके से निभा नहीं पा रहे हैं। उन पर पैसाखोरी और अंधाधुंध कमाई के साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। उनकी तुलना में अभिनेता-अभिनेत्रियों की एक सामाजिक छवि होती है। फिल्मी पर्दे पर वे जनता की लड़ाई करते हुए दिखते-दिखाते कम से कम औसत मतदाताओं में उनकी ये सामाजिक छवि विकसित होती है। यही वजह है कि आम लोग टूट कर उन्हें वोट देते हैं। लेकिन जब यही अभिनेता उसकी समस्याओं को दूर कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, उसे लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताता तो जनता उसके लापता होने का पोस्टर लगाने लगती है। फिर जो पार्टी उसे धूमधाम से संसद में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए टिकट देकर जिता कर लाई होती है – वही उससे किनारा करने लगती है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी उस जनता को होती है, जो बड़े अरमानों के साथ उस नेता को जिता कर संसद के गलियारे में भेजती है। पार्टी भले ही बाद में उसका टिकट काट दे – लेकिन नुकसान उस जनता को ही भुगतना पड़ता है, जिसने अपना कीमती वोट उस राजनेता बने अभिनेता को दिया होता है। उसका पांच साल बरबाद हो जाता है। डॉक्टर लोहिया कहते थे कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं कर सकतीं – लेकिन मजबूरी देखिए कि इस जिंदा कौम को पूरी सजगता के बावजूद पांच साल तक अपनी बदहाली दूर कराने , अपनी समस्याएं निबटवाने वाले राजनेताओं की खोज के लिए पांच साल तक इंतजार करना पड़ता है।

ऐसे में ये कहा जाय कि सियासी स्वार्थ के लिए पार्टियां ऐसे अभिनेताओं को अपने साथ लेकर आती हैं, उन्हें जिताती भी हैं। लेकिन उनकी भूमिका राजनीति के ड्राइंग रूम में सजे गुलदस्ते से ज्यादा की नहीं होती। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि सियासी ड्राइंगरूम में इन अभिनेताओं को गुलदस्ते की तरह सजाने की जरूरत क्या है। क्या संसद के गलियारे में अपना एक वोट बढ़ाने के लिए जनता के प्रति जवाबदेही को पांच साल तक स्थगित रखा जाना चाहिए। अभी तक तो जनता ये सवाल नहीं पूछ रही है। लेकिन देर-सवेर राजनीतिक पार्टियों से ये सवाल पूछे जाएंगे। तब शायद कोई मुन्नाभाई या विरार का छोकरा महज गुलदस्ता बनने राजनीति के आंगन में नहीं उतरेगा। लेकिन इससे वे पार्टियां भी अपनी सामाजिक भूमिका से बच नहीं सकतीं, जिनके हाथ इन गुलदस्तों को सजाने के लिए आगे बढ़ते रहे हैं।

सुबह सवेरे में