Sunday, May 6, 2012


शहरी मध्यवर्ग के समर्थन के बिना नक्सली
उमेश चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन के अगवा प्रकरण ने नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी मशीनरी की लाचारगी की पोल तो खोली ही है, लेकिन एक नई तरह का संकेत भी दिया है। नक्सलियों ने मध्यस्थता के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए थे, उनमें से दो अहम शख्सीयतों ने मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकराने में देर नहीं लगाई। सुप्रीम कोर्ट के वकील और अन्ना हजारे की कोर टीम के अहम सदस्य प्रशांत भूषण की ख्याति वामपंथी विचारों के लिए भी रही है। लेकिन उन्होंने इस बार ना सिर्फ मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकरा दिया, बल्कि किसी सिविल अधिकारी को बंधक बनाने की नक्सली रणनीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। नक्सलियों ने आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजम का भी नाम मध्यस्थों के लिए सुझाया था। लेकिन उन्होंने भी सिर्फ पॉल मेनन के लिए दवाएं ले जाने का मानवीय रास्ता ही अख्तियार किया। उन्होंने भी मध्यस्थता में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

Saturday, April 7, 2012


चुप्पी के पीछे क्या है?
उमेश चतुर्वेदी
उत्तराखंड में कांग्रेस को सरकार में लौटे करीब एक महीने का वक्त बीत चुका है। लेकिन पार्टी की आपसी खींचतान थमने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे में राहुल गांधी की चुप्पी पर सवाल उठना लाजिमी है। इसकी वजह है जनवरी-फरवरी के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जोरदार जीत दिलाने के लिए की गई उनकी जी तोड़ मेहनत। यह सच है कि उनकी कोशिश के नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे। लेकिन यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब रही, उत्तराखंड में सरकार में लौटी। तो क्या यह मान लिया जाय कि राहुल गांधी अपेक्षा के अनुरूप नतीजे नहीं मिलने से निराश हैं और चुपचाप बैठ गए हैं। भरपूर मेहनत और जी तोड़ कोशिशों का नतीजा बेहतर नहीं आता तो निराशा स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति की दुनिया में सक्रिय हस्तियां देर तक निराशा के गर्त में नहीं डूबी रहतीं। फिर कांग्रेस कोई छोटी-मोटी पार्टी नहीं है और राहुल गांधी उसके मामूली कार्यकर्ता भर नहीं है। तो क्या यह मान लिया जाय कि पार्टी में ये चुप्पी कांग्रेस में तूफानी बदलाव के पहले के सन्नाटे जैसी है।

Saturday, March 31, 2012


                      क्या हुआ कि अन्ना अब दूर हो गए
उमेश चतुर्वेदी 
अन्ना हजारे की टीम को पिछले दिनों सिर्फ चेतावनी देकर संसद ने छोड़ दिया। हालांकि मुलायम सिंह यादव जैसे नेता ने तो उन्हें संसद में मुजरिमों की तरह बुलाए जाने की मांग की। नाराज वह शरद यादव भी कम नहीं रहे, जिनकी दाढ़ी में तिनका वाली कहावत का टीम अन्ना ने इस्तेमाल किया। अन्ना हजारे की टीम के खिलाफ कोरस गान में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के नेताओं के अलावा छोटे-बड़े सभी दल शामिल रहे। हालांकि एक दिन पहले यानी 26 मार्च को सुषमा स्वराज, गुरुदास दासगुप्ता और वासुदेव आचार्य भी अन्ना हजारे के खिलाफ विरोध में शामिल रहे और उन्हें चेतावनी देने की मांग करते रहे। उस दिन कांग्रेस मंद मुस्कान के साथ गुस्से के इस गुब्बार को देखती रही।

Saturday, March 24, 2012


मोहन धारिया और टाइम की उम्मीदों पर कितना खरा उतरेंगे मोदी
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खबरों में रहना आता है। हासिल हुए मौकों को अपने पक्ष में मोड़ने और प्रचारित करने में भी उन्हें महारत हासिल है। 2002 के गुजरात दंगों के दाग़ की वजह से मीडिया और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के निशाने पर रहना मोदी की नियति हो गई है। लेकिन इसके बावजूद मोदी का ये कमाल ही कहेंगे कि वो मीडिया को अपने तईं इस्तेमाल कर लेते हैं और सारा मजमा लूट ले जाते हैं। गुजरात के विकास कार्यों में जिस मुस्तैदी से वे जुटे हैं, उसके चलते अब उनके विरोधी भी मानने लगे हैं कि उनका राजनीतिक दमखम 2014 के आम चुनावों में बतौर बीजेपी नेता दिख सकता है। तभी तो कभी जनता पार्टी से दोहरी सदस्यता के नाम पर अलग होने वाले युवा तुर्क मोहन धारिया भी ये कहने से खुद को रोक नहीं पाते कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें खुशी हुई।

Sunday, March 11, 2012


नीतीश और मोदी की प्रतिद्वंद्वी हो सकती हैं ममता
उमेश चतुर्वेदी
नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर यानी एनसीटीसी के विरोध में ममता बनर्जी के उतरने के बाद उसके अमल पर रोक लग गई है...प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ममता बनर्जी की मुलाकात के बाद इसे रोकने के अलावा केंद्र सरकार के पास दूसरा कोई चारा नहीं था। मौजूदा केंद्र सरकार की हालत और मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में एक-एक सांसद की अहमियत बढ़ गई है। फिर ममता बनर्जी अपने 18 सांसदों के साथ सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण घटक है, लिहाजा उनके विरोध को दरकिनार कर पाना एक तरह से राजनीतिक हाराकिरी ही होगी।

Tuesday, February 21, 2012


नई राह पर उत्तर प्रदेश
उमेश चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश के मतदान के दूसरे दौर में गोरखपुर के भारतीय जनता पार्टी के सांसद आदित्यनाथ का बयान भले ही उनकी पार्टी को नागवार गुजरा हो..लेकिन अब तक के चुनावी दौर के बाद माना तो यही जा रहा है कि मौजूदा चुनावों में राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा। अगर 2007 की तरह कोई चमत्कार हुआ और किसी पार्टी को आसानी से बहुमत हासिल हो जाए तो यह बात और है। क्योंकि भारतीय मतदाता के मन की थाह लगा पाना आसान नहीं है। वह वोट किसी खास को देता है और मतदान केंद्र से बाहर आता है तो वह किसी और का साथ देने की बात करने लगता है। इस सोच के पीछे उसके अपने संस्कारों का असर कहीं ज्यादा होता है। लेकिन अगर राजनेता की जमीनी पकड़ रही, राजनीतिक सवालों और उससे पड़ते जमीनी असर पर उसका ध्यान रहा तो निश्चित तौर पर वह अपने राजनीतिक उत्थान और हश्र की असल कहानी समझ रहा होता है। लेकिन गांधी के नाम पर सत्य और अंहिसा की जिस परंपरावादी राजनीति की घुट्टी मौजूदा राजनीति के कर्णधार पीते रहे हैं,

Monday, February 13, 2012


सियासी हसरत के इजहार के निहितार्थ
उमेश चतुर्वेदी
अमेठी में प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा ने जिस तरह जनता के बहाने अपनी महत्वाकांक्षाओं को जाहिर किया है, उससे साफ है कि देश के पहले राजनीतिक परिवार का रिश्तेदार होने के चलते उनके मन के किसी कोने में राजनीति में उतरने को लेकर दबी-ढकी आकांक्षा जरूर है। राबर्ट वाड्रा का ये कहना कि अगर जनता ने चाहा तो वे राजनीति में आ सकते हैं.। कांग्रेसी राजनीति के गलियारों में इसे पत्रकारों के सवालों के फौरी जवाब के तौर पर बताकर टालने की कोशिशें तेज हो गई हैं। यह भी बताने की कोशिश हो रही है कि राबर्ट वाड्रा की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। लेकिन इसे उनके सामान्य बयान की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। हालांकि सबसे पहले उनके बयान को उनकी पत्नी प्रियंका गांधी ने ही खारिज किया। जैसा कि हर बार ऐसे बयानों में होता है कि पूरा दोष मीडिया पर थोप दिया जाता है। प्रियंका ने भी कुछ ऐसा ही कहा। उन्होंने मीडिया को जिम्मेदार ठहराते हुए कह दिया कि मीडिया ने उनसे सवाल पूछा और उसका उन्होंने जवाब दे दिया। प्रियंका ने कहा- लोग मुझे राजनेता के तौर पर देखना चाहते हैं, लेकिन मेरा और मेरे पति का फिलहाल सक्रिय राजनीति में आने का कोई इरादा नहीं है। हम राहुल गांधी के मिशन उत्तर प्रदेश को सफल बनाने के लिए काम कर रहे हैं।
राबर्ट वाड्रा की राजनीति में आने की कोई सचमुच कोई इच्छा है या नहीं, इसकी पड़ताल के पहले ये देखना जरूरी है कि प्रियंका को लेकर आम कांग्रेसी क्या सोचते हैं।

सुबह सवेरे में