Wednesday, June 6, 2012

कारगर रणनीति बनाने की जरूरत
उमेश चतुर्वेदी
भ्रष्टाचार की मुखालफत और काले धन की वापसी को लेकर योगगुरु बाबा रामदेव ने जिस तरह का समन्वयवादी कदम उठाया है, उससे उनके कट्टर समर्थकों को थोड़ी निराशा जरूर हुई होगी। रामदेव के समर्थक उनसे उसी ओज और आक्रामक अंदाज की उम्मीद कर रहे थे, जो उन्होंने रामलीला मैदान-कांड के ठीक पहले पिछले साल दिखाया था। मगर, इस बार बाबा का वैसा ओज गायब था। बाबा थोड़े डरे-सहमे से लगे। शायद उन्होंने अपने आंदोलन का रूप बदल दिया है। उनका जोर टकराव पर नहीं, समन्वय पर है।

Monday, June 4, 2012


क्या पूरा होगा मनोहर आटे का सपना
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुका है।)
उत्तर प्रदेश की आज की ताकतवर पार्टी बहुजन समाज पार्टी के मूल संगठन बामसेफ के संस्थापक सदस्य रहे मनोहर आटे की मौत हो गई। नागपुर में आखिरी जिंदगी गुजारते रहे मनोहर आटे की मौत की खबर अनदेखी और अनसुनी ही रह गई। बहुजन समाज को समाज में उसका उचित अधिकार दिलाने और नया समाज बनाने के एक स्वप्नकार की मौत का यूं अनसुनी रह जाना, निश्चित तौर पर सवाल खड़ा करता है। यह सवाल इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिस सपने के साथ मनोहर आटे ने कांशीराम के साथ बामसेफ और बाद में बीएसपी की नींव रखी थी, वह राजनीति की दुनिया में अहम मुकाम हासिल कर चुका है।

Wednesday, May 30, 2012


क्या संगमा बनेंगे कलाम !
उमेश चतुर्वेदी
इसे ही शायद लोकतंत्र कहते हैं...अपनी ही पार्टी साथ देने को तैयार नजर नहीं आती। इसके बावजूद देश का पहला नागरिक बनने की दौड़ में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा शामिल हो चुके हैं। वैसे तो इस दौड़ में वे खुद को पहले से ही शामिल कर चुके थे, लेकिन बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक ने उनका साथ देकर उनकी उम्मीदवारी को थोड़ा गंभीर जरूर बना दिया है। थोड़ा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक मंडल का सिर्फ तीन-तीन फीसदी मत ही दोनों दलों के पास है। जाहिर है कि इतने कम मत से रायसीना हिल की दौड़ जीतना असंभव ही है। पीए संगमा ने जिस आदिवासी कार्ड के बहाने अपना नाम आगे बढ़ाया है, उसे उनकी अपनी ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी साथ नहीं दे रही तो दूसरों से क्या उम्मीद की जाती।

Friday, May 25, 2012


उच्च शिक्षा व्यवस्था पर फिर उठा सवाल
उमेश चतुर्वेदी
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था और आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। उलटबांसियों के बीच आगे बढ़ती अपनी अर्थव्यवस्था का मंदी से जूझ रहे अमेरिका और यूरोप के देश भी मानने लगे हैं। ऐसे में अव्वल तो होना यह चाहिए था कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी कम से कम दुनिया के स्तर की होनी चाहिए। निश्चित तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए गंभीर और गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। नालंदा और तक्षशिला जैसे गुणवत्ता आधारित विश्वविद्यालयों की परंपरा वाले देश में ऐसी उम्मीद भी बेमानी नहीं है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास -21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और दुनिया के सामने उसकी हैसियत की पोल खोल कर रख दी है।

Monday, May 14, 2012


राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए पाठ्यक्रमों का विरोध
उमेश चतुर्वेदी
संसद के साठ साल पूरे होने के मौके पर दिए एक साक्षात्कार में पहली संसद के सदस्य रहे और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रिशांग किशिंग ने एक बड़ी मार्के की बात कही है। उन्होंने कहा है कि पहले संसद में जनता से जुड़े मुद्दे उठाए जाते थे, लेकिन अब मुद्दे दलगत और राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए उठाए जाते हैं। एनसीईआरटी की किताब में छपे संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से जुडे कार्टून का मसला भी रिशांग किशिंग की चिंताओं को ही जाहिर कर रहा है। दिलचस्प यह है कि जिस कार्टून को लेकर विवाद खड़ा हुआ, उसे शंकर जैसे मशहूर कार्टूनिस्ट ने बनाया है। 1949 में बनाए गए इस कार्टून को लेकर पता नहीं तब अंबेडकर या नेहरू ने कैसी प्रतिक्रिया दी होगी, , लेकिन एनसीईआरटी की किताब में प्रकाशित हुए इस कार्टून को लेकर दलितों की राजनीति करने वाले बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों का मानना कुछ और ही है। इन राजनीतिक दलों को लगता है कि ऐसे कार्टून को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने बाबा साहब अंबेडकर को लेकर छात्रों के मन में गलत संदेश जाएगा।

Wednesday, May 9, 2012


जरूरी है बराबरी के आधार वाली बुनियादी शिक्षा
उमेश चतुर्वेदी
जब से शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया है, तभी से नामी गिरामी पब्लिक और निजी स्कूलों ने इसकी काट खोजने की कवायद जारी रखी है। शिक्षा के अधिकार कानून में निजी और पब्लिक स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। निजी और पब्लिक स्कूलों को सबसे ज्यादा परेशानी इसी प्रावधान से रही है। क्योंकि उनकी मोटी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इसके जरिए कम होता नजर आ रहा है भले ही उनके पाठ्यक्रमों में कृष्ण और सुदामा की पौराणिक कथा दोस्ती की मिसाल के तौर पर शामिल हो, लेकिन हकीकत में वे कृष्ण और सुदामा को साथ बैठाने और पढ़ाने की अवधारणा से ही पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे हैं।

Sunday, May 6, 2012


शहरी मध्यवर्ग के समर्थन के बिना नक्सली
उमेश चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन के अगवा प्रकरण ने नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी मशीनरी की लाचारगी की पोल तो खोली ही है, लेकिन एक नई तरह का संकेत भी दिया है। नक्सलियों ने मध्यस्थता के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए थे, उनमें से दो अहम शख्सीयतों ने मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकराने में देर नहीं लगाई। सुप्रीम कोर्ट के वकील और अन्ना हजारे की कोर टीम के अहम सदस्य प्रशांत भूषण की ख्याति वामपंथी विचारों के लिए भी रही है। लेकिन उन्होंने इस बार ना सिर्फ मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकरा दिया, बल्कि किसी सिविल अधिकारी को बंधक बनाने की नक्सली रणनीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। नक्सलियों ने आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजम का भी नाम मध्यस्थों के लिए सुझाया था। लेकिन उन्होंने भी सिर्फ पॉल मेनन के लिए दवाएं ले जाने का मानवीय रास्ता ही अख्तियार किया। उन्होंने भी मध्यस्थता में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

सुबह सवेरे में