Thursday, August 21, 2014

लालू-नीतीश की कामयाबी बदलेगी सियासी मिजाज !


उमेश चतुर्वेदी
समाज और राज को चलाने वाली राजनीति की भी अजब रवायत है..ज्ञान और विचार की दुनिया में सिद्धांत शाश्वत या अविच्छिन्न मूल्यों के आधार पर तैयार होते हैं। लेकिन राजनीति अपने तात्कालिक फायदे और नुकसान के लिए वैचारिक सरणियों से गुजरती है और नया सिद्धांत गढ़ती है। 1962 में एक हद तक कांग्रेस विरोधी हवा के बावजूद विपक्ष की हार ने डॉक्टर राममनोहर लोहिया को गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत की तरफ सोचने के लिए मजबूर किया था। जिसने 1963 में ही कमाल दिखाया और उपचुनावों में समाजवादी धुरंधर डॉक्टर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी, पीलू मोदी देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने में कामयाब रहे। इसका असर 1967 में भी नजर आया, जब नौ राज्यों में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। इसी गैरकांग्रेसवाद की समाजवादी नींव और विचार पर आज के समाजवादियों का राजनीतिक प्रशिक्षण हुआ है। यह बात और है कि अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते लालू यादव लगातार कांग्रेस के साथ हैं। अब इसमें नया नाम नीतीश कुमार का भी जुट गया है। कभी लोहिया ने भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के साथ गैरकांग्रेसवाद के विचार को चरम पर पहुंचाया था। उन्हीं लोहिया के तेजतर्रार समाजवादी शिष्य किशन पटनायक की शागिर्दी में समाजवाद का राजनीतिक पाठ पढ़ने वाले नीतीश कुमार अब कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। वैशाली जिले के हाजीपुर में बीस साल बाद एक दौर के बड़े भाई और अपने प्यारे दोस्त लालू यादव के साथ मंच साझा करते वक्त भारतीय राजनीति को नया सिद्धांत देने की कोशिश की, वह सिद्धांत है गैरभाजपावाद का।

Sunday, August 10, 2014

उदारीकरण, परंपरा, नई राजनीति और युवाओं की चुनौतियां

उमेश चतुर्वेदी
(यह आलेख भारतीय जनता पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश के युवा विशेषांक में प्रकाशित हुआ है..जिसका विमोचन 9 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने किया..यह लेख जनवरी 2014 में लिखा गया था)
क्या भारतीयता की सोच की अवधारणा पूरी तरह चुक गई है..देश ही क्यों..किसी भी इलाके की सोच वहां की परिस्थिति, जलवायु और जरूरतों के मुताबिक विकसित होती है। दो सौ सालों के अंग्रेजी शासन काल ने सबसे बड़ा काम यह किया है कि उसने सोच के हमारे अपने आधार पर ही कब्जा कर लिया है। यही वजह है कि हमारी पूरी की पूरी सोच पश्चिम से आयातित मानकों और जरूरतों के मुताबिक होने में देर नहीं लगाती। युवाओं के संदर्भ में हमारी जो सोच विकसित हुई है या हो रही है..विचार करने का वक्त आ गया है कि क्या वह सोच भी भारतीयता की अवधारणा के आधार से दूर है..यह सवाल इसलिए उठता है..उदारीकरण के आते ही हमारे देश की युवाशक्ति की बलैया ली जाने लगी थी।

Tuesday, November 5, 2013

गांवों की तसवीर बदलने वाला वह युवा तुर्क

मोहन धारिया की याद
(वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय के संपादन में निकल रही पत्रिका यथावत के  1-15 नवंबर 2013 के अंक में इस लेख का संपादित अंश प्रकाशित हो चुका है..)
उमेश चतुर्वेदी
अप्रैल 2008 का आखिरी हफ्ता..दिल्ली की दोपहरियां कड़क धूप से परेशान करने लगी थीं..एक मराठी समाचार पत्र के उन्हीं दिनों शुरू हुए एक टीवी चैनल में दिल्ली कार्यालय की अहम जिम्मेदारी निभा रहा था..इन्हीं दिनों एक प्रेस बुलावा आया...कन्फेडरेशन ऑफ एनजीओ ऑफ रूरल इंडिया का..दिल्ली के अशोक होटल में 25 से 27 अप्रैल तक इसका कार्यक्रम होना था.जिसका उद्घाटन तब के ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को करना था। बुलावा मोहन धारिया के नाम था..धारिया ही इस कन्फेडरेशन यानी संघ के प्रमुख कर्ता-धर्ता थे। धारिया की छवि अखिल भारतीय रही है..लेकिन मराठी समाज में उनका सम्मान कुछ ज्यादा ही ऊंचा था। लिहाजा मराठी मीडिया की हमारी टीम को इसे कवर करना ही था। दफ्तर की टीम रिपोर्टिंग करने चली भी गई। लेकिन एक दौर के युवा तुर्क मोहन धारिया की शख्सीयत को देखने और उनसे मिलने की ललक पर काबू पाना मुश्किल था..लिहाजा मैं भी वहां पहुंच गया..तब मोहन धारिया की उम्र 84 साल की थी। उद्धाटन कार्यक्रम में मौजूदगी के चलते थक गए थे..लिहाजा उनसे खास मुलाकात अशोक होटल के ही उस कमरे में हुई, जहां वे ठहरे हुए थे। 

Sunday, October 20, 2013

बदलाव के दौर से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी

उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख उत्तराखंड से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र संडे पोस्ट के भारतीय जनता पार्टी विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है।)
नरेंद्र मोदी को पहले चुनाव प्रचार अभियान की कमान और बाद में प्रधानमंत्री पद की उम्मदीवारी पर उठा विवाद फिलहाल थमता नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में लालकृष्ण आडवाणी नेअपने चेले की सरकार का गुणगान करके यह संदेश दे दिया है कि वे तकरीबन मान गए हैं। हालांकि पहले प्रचार अभियान की कमान और दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर मोदी की उम्मीदवारी पर मुहर के बाद लालकृष्ण आडवाणी के कोपभवन में जाने और नाराज होने के बाद  उनके खिलाफ के इर्द-गिर्द घटी घटनाएं भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा चाल, चेहरा और चरित्र को उजागर करने के लिए काफी है। छह अप्रैल 1980 को दिल्ली में पार्टी का गठन करते वक्त जिस आडवाणी ने पार्टी विथ डिफरेंस का नारा दिया था, मोदी को कमान मिलने के बाद कोपभवन में जाकर उन्हीं आडवाणी ने साफ कर दिया कि पार्टी बदलाव के दौर से गुजर रही है। लेकिन वे खुद इस बदलाव को सहजता से स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अलबत्ता इस पूरी प्रक्रिया में एक बात जरूर रही कि उन्होंने अपनी खुद की छवि जरूर बदल ली। राममंदिर आंदोलन के साथ ही उन्हें रेडिकल छवि वाले नेता के तौर पर देखा जाता था। दिलचस्प यह है कि उनकी इस रेडिकल और हिंदूवादी छवि में नब्बे के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने निष्ठावान स्वयंसेवक की छवि नजर आती थी। उनकी तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी कहीं ज्यादा उदार नजर आते थे। लेकिन उनके कोपभवन में जाने और इस्तीफे की खबरों के बाहर प्रचारित होने के बाद उन्हें लोग नरेंद्र मोदी की तुलना में उदार मानने लगे। इस लिहाज से देखें तो बहुलतावादी दर्शन के जबर्दस्त पैरोकारों के बीच आडवाणी की यह छवि उनकी उपलब्धि ही है।

Sunday, October 6, 2013

दागी तो नहीं बन पाएंगे माननीय..लेकिन किसे मिले श्रेय

उमेश चतुर्वेदी
दागियों को माननीय बनने और बनाने से रोकने वाले विधेयक और अध्यादेश की वापसी ने सरकार और विपक्ष दोनों के बीच श्रेय लेने की होड़ का मौका दे दिया है। सरकार की अगुआई कर रही कांग्रेस पार्टी जहां इसके लिए पूरा श्रेय राहुल गांधी को देने की पुरजोर कोशिश कर ही रही है। विपक्ष भी इसका पूरा श्रेय खुद लेना चाहता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसका पूरा श्रेय राहुल गांधी को ही मिलना चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष की इसमें कोई भूमिका नहीं रही। सवाल यह भी है कि क्या वामपंथी दलों ने राजनीतिक गंगा को साफ करने वाले इस यज्ञ में कोई योगदान नहीं दिया और क्या इस एक फैसले से नरेंद्र मोदी की तरफ से राहुल गांधी को जो चुनौती मिलती नजर आ रही है, उस पर लगाम लग जाएगा।

Friday, September 20, 2013

आडवाणी के बदले बोल से क्या थमेगा सत्ता संघर्ष


उमेश चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ के कोरबा ने क्या इतिहास रचने की दिशा में एक कदम बढ़ा दिया है..यह सवाल इन दिनों दो तरह से लोगों के जेहन में घूम रहा है। एक तो यह कि क्या भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष स्तर पर मचा सत्ता का संघर्ष खत्म हो गया है ? क्या पार्टी के शीर्ष पुरूष और अयोध्या आंदोलन के प्रमुख सेनानी अपने मौजूदा रूख पर कायम रहेंगे। भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी परिधि के बाहर इस सवाल के अलावा भी चिंताएं और उम्मीदें हैं। मोदी विरोधियों, जिनमें ज्यादातर बाहरी और गैर भारतीय जनता पार्टी वाले दल हैं, उन्हें सांप्रदायिकता और दंगों के दागी के खिलाफ कोरबा की कहानी में भी नई रणनीति दिखती है। क्योंकि कोरबा से अयोध्या आंदोलन के महारथी ने अपने शिष्य को सीधे तौर पर समर्थन नहीं दिया। लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात में बिजली की उपलब्धता और विकास की प्रशंसा की।

Thursday, September 12, 2013

श्यामरूद्र पाठक की गिरफ्तारी से उठे भारतीय भाषाओं के सवाल

उमेश चतुर्वेदी
मेरी समझ में वे लोग बेवकूफ हैं जो अंग्रेजी के चलते हुये समाजवाद कायम करना चाहते हैं| वे भी बेवकूफ हैं जो समझते हैं कि अंग्रेजी के रहते हुये जनतंत्र भी आ सकता है| हम तो समझते हैं कि अंग्रेजी के होते यहाँ ईमानदारी आना भी असंभव है| थोड़े से लोग इस अंग्रेजी के जादू द्वारा करोड़ों को धोखा देते रहेंगे|”
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डॉ॰ राममनोहर लोहिया
अगर डॉक्टर लोहिया अंग्रेजी और जर्मन के प्रखर जानकार नहीं होते तो भाषायी स्वाभिमान के मोर्चे पर जैसा भाव देश में दिख रहा है, उनके इस कथन पर उपेक्षात्मक सवाल उठते। भारतीय वैचारिक जगत पर औपनिवेशिक प्रभाव और वैचारिक जड़ता पर लोहिया ने जितने प्रहार किए हैं, उतने शायद ही किसी और नेता और विचारक ने किए हों। लेकिन दुर्भाग्यवश यह जड़ता बढ़ती ही गई। यही वजह है कि आईआईटी दिल्ली से बी टेक और एम टेक श्यामरुद्र पाठक देश के सबसे मजबूत सत्ता केंद्र सोनिया गांधी की रिहायश दस जनपथ के बाहर 225 दिनों तक संविधान के अनुच्छेद 348 ख में बदलाव की शांत मांग को लेकर बैठे रहे। लेकिन देश का भाषायी स्वाभिमान जाग नहीं पाया। 16 जुलाई 2013 को जब तुगलक रोड पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उन्होंने पुलिस का खाना खाने से ही मना कर दिया। इससे परेशान पुलिस अफसरों ने उनके परिचितों को फोन करके बुलाना शुरू कर दिया।

सुबह सवेरे में